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चेतना का वर्गीकरण
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है— चेतना की विशेष प्रवृत्ति होती है, तभी उसका ज्ञान होता है । प्रवृत्ति छूटते ही उस विषय का ज्ञान छूट जाता है । निरुपाधिक चेतना की प्रवृत्ति सामग्री - निरपेक्ष होती है इसलिए वह वस्तुतः प्रवृत्त होती है उसकी विशेष प्रवृत्ति करनी नहीं पड़ती। सोपाधिक चेतना सामग्री-सापेक्ष होती है, इसलिए वह सब विषयों को निरन्तर नहीं जानती, जिस पर विशेष प्रवृत्ति करती है, उसी को जानती है ।
सोपाधिक चेतना के दो रूप
सोपाधिक चेतना के दो रूप – अवधि — मूर्त पदार्थ - ज्ञान और मन:पर्याय-पर-चित्त-ज्ञान विशद और बाह्य सामग्री- निरपेक्ष होते हैं इसलिए ये अव्यक्त नहीं होते, क्रमिक नहीं होते और संशय-विपर्यय दोष से मुक्त होते हैं । ऐन्द्रियक और मानसज्ञान (मति और श्रुत) बाह्य-सामग्री- निरपेक्ष होते हैं इसलिए ये अव्यक्त, क्रमिक नहीं होते और संशय-विपर्यय-दोष से युक्त भी होते हैं । इसका मुख्य कारण ज्ञानावरण का तीव्र सद्भाव ही है । ज्ञानावरण कर्म आत्मा पर छाया रहता है । चेतना का सीमित विकास - जानने की आंशिक योग्यता ( क्षायोपशमिक - भाव) होने पर भी जब तक आत्मा का व्यापार नहीं होता तब तक ज्ञानावरण उस पर पर्दा डाले पुरुषार्थं चलता है, पर्दा दूर हो जाता है, पदार्थों की जानकारी पुरुषार्थ निवृत्त होता है, ज्ञानावरण फिर छा जाता है । उदाहरण के लिए समझिए – पानी पर शैवाल बिछा हुआ है । कोई उसे दूर हटाता है, पानी प्रकट हो जाता है, उसे दूर करने का प्रयत्न बन्द होता है, तब वह फिर पानी पर छा जाता है | ज्ञानावरण का भी यही क्रम है । शरीर और चेतना का पारस्परिक प्रभाव
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आत्मा अमूर्त है, उसको हम देख नहीं सकते । क्रियाओं की अभिव्यक्ति होती हैं । उदाहरणस्वरूप हम विद्युत् है और शरीर बल्ब है । ज्ञान-शक्ति आत्मा का साधन शरीर के अवयव हैं। बोलने का प्रयत्न आत्मा शरीर है। इसी प्रकार पुद्गल ग्रहण एवं हलन चलन आत्मा करती है और उसका साधन शरीर है । आत्मा के बिना चिन्तन, जल्प और बुद्धिपूर्वक गतिआगति नहीं होती तथा शरीर के बिना उनका प्रकाश ( अभिव्यक्ति) नहीं होता । इसलिए कहा गया है -- ' द्रव्यनिमित्तं हि संसारिणां वीर्यमुपजायते'अर्थात् संसारी- आत्माओं की शक्ति का प्रयोग पुद्गलों की सहायता से होता है । हमारा मानस चिन्तन में प्रवृत्त होता है और उसे पोद्गलिक मन के द्वारा पुद्गलों का ग्रहण करना ही पड़ता है, अन्यथा उसकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती ! हमारे चिन्तन में जिस प्रकार के इष्ट या अनिष्ट भाव आते हैं, उसी प्रकार के
शरीर में आत्मा की कह सकते हैं कि आत्मा
गुण है
और उसके
उसका साधन
रहता है । मिलती है ।
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का है,
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