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चित्त और मन
समनस्क प्राणी जो चिन्तन करते हैं, उस चिन्तन के अनुरूप आकृतिया बनती हैं । इन्द्रिय और मन उन्हें साक्षात् नहीं जान सकते । इन्हें चेतोवृत्ति का ज्ञान सिर्फ आनुमानिक होता है। परोक्ष ज्ञानी शरीर की स्थल चेष्टाओं को देख कर अन्तरवर्ती मानस प्रवृत्तियों को समझने का यत्न करता है। मनःपर्यवज्ञानी उन्हें साक्षात् जान जाता है। मनःपयवज्ञान
मनःपर्यवज्ञानी को इस प्रयत्न में अनुमान करने के लिए मन का सहारा लेना पड़ता है। वह मानसिक आकृतियों का साक्षात्कार करता है किन्तु मानसिक विचारों का साक्षात्कार नहीं करता । इसका कारण यह हैपदार्थ दो प्रकार क होते हैं-पूर्त और अमूर्त । पुद्गल मूर्त हैं और आत्मा अमूर्त । अनावृत चेतना को हो इन दोनों का साक्षात्कार होता है। आवृत चेतना सिर्फ मूर्त पदार्थ का ही साक्षात्कार कर सकती है। मनःपर्याय ज्ञान आवृत चेतना का एक विभाग है इसलिए वह आत्मा की अमूर्त मानसिक परिणति को साक्षात् नहीं जान सकता। वह आत्मिक-मन के निमित्त से होने वाली मूर्त मानसिक परिणति (पौद्गलिक मन की परिणति) को साक्षात् जानता है और मानसिक विचारों को उसके द्वारा अनुमान से जानता है। मानसिक विचार और उसकी आकृतियों के अविनाभाव से यह ज्ञान पूरा बनता है। इसमें मानसिक विचार अनुमेय होते हैं। फिर भी यह ज्ञान परोक्ष नहीं है । कारण कि मानसिक विचारों को साक्षात् जानना मनःपर्याय ज्ञान का विषय नहीं। इसका विषय है मानसिक आकृतियों को साक्षात् जानना । उन्हें जानने के लिए इसे दूसरे पर निर्भर नहीं होना पड़ता इसलिए यह आत्मप्रत्यक्ष ही है। मनःपर्याय ज्ञान जैसे मानसिक पर्यायों (ज्ञेय-विषयक अध्यवसायों) को अनुमान से जानता है वैसे ही मन द्वारा चिन्तनीय विषय को भी अनुमान से जानता है । सोपाधिक चेतना : निरुपाधिक चेतना
ज्ञानावरण का पूर्ण विलय (क्षय) होने पर चेतना निरुपाधिक हो जाती है। उसका आंशिक विलय (क्षयोपशम) होता है तब उसमें अनन्त गुण तरतमभाव रहता है । उसके वर्गीकृत चार भेद हैं-मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्याय । इनमें भो अनन्तगुण तारतम्य होता है । एक व्यक्ति के मतिज्ञान से दूसरे व्यक्ति का मति-ज्ञान अनन्तगुण हीन या अधिक हो जाता है । यही स्थिति शेष तीनों की है।
निरुपाधिक चेतना की प्रवृत्ति-उपयोग सब विषयों पर निरन्तर होता रहता है । सोपाधिक चेतना (आंशिक विलय से विकसित चेतना) की प्रवृत्ति-उपयोग निरन्तर नहीं रहता । जिस विषय पर जब ध्यान होता
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