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________________ चेतना का वर्गीकरण चेतना के स्वरूप और विभाग आत्मा सूर्य की तरह प्रकाश-स्वभाव होती है । उसके प्रकाश-चेतना के दो रूप बनते हैं-आवृत और अनावृत । अनावृत-चेतना अखण्ड, एक, विभाग-शून्य और निरपेक्ष होती है। कर्म से आवृत चेतना के अनेक विभाग बन जाते हैं। उसका आधार ज्ञानावरण कर्म के उदय और विलय का तारतम्य होता है। वह अनन्त प्रकार का होता है इसलिए चेतना के भी अनन्त रूप बन जाते हैं किन्तु उसके वर्गीकृत रूप चार हैं-मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्याय । मति–इन्द्रिय और मन से होने वाला ज्ञान-वार्तमानिक ज्ञान । श्रुत-शास्त्र और परोपदेश-शब्द के माध्यम से होने वाला कालिक मानस-ज्ञान । अवधि-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना केवल आत्म-शक्ति से होने वाला ज्ञान। मनःपर्याय-पर-चित्त ज्ञान । इनमें पहले दो ज्ञान परोक्ष हैं. और अन्तिम दो प्रत्यक्ष। ज्ञान स्वरूपतः प्रत्यक्ष ही होता है। बाह्यार्थ ग्रहण के समय वह प्रत्यक्ष और परोक्ष-इन दो धाराओं में बंट जाता है। ज्ञाता ज्ञेय को किसी माध्यम के बिना जाने तब उसका ज्ञान प्रत्यक्ष होता है और माध्यम के द्वारा जाने तब परोक्ष । प्रकाश स्वभाव है आत्मा ___आत्मा प्रकाश-स्वभाव है इसलिए उसे अर्थ-बोध में माध्यम की अपेक्षा नहीं होनी चाहिए किन्तु चेतना का आवरण बलवान होता है तब वह हुए बिना नहीं रहती। मति-ज्ञान पौद्गलिक इन्द्रिय और पौद्गलिक मन के माध्यम से होता है। श्रुत-ज्ञान शब्द और संकेत के माध्यम से होता है इसलिए ये दोनों परोक्ष हैं। अवधि-ज्ञान इन्द्रिय और मन का सहारा लिए बिना ही पोद्गलिक पदार्थों को जान लेता है। आत्म-प्रत्यक्ष ज्ञान में सामीप्य और दूरी, भीत आदि का आवरण, तिमिर और कुहासा-ये बाधक नहीं बनते। मनःपर्याय ज्ञान दूसरों की मानसिक आकृतियों को जानता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003056
Book TitleChitt aur Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size16 MB
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