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________________ २५८ चित्त और मन दब्बू या कायर माना जाता है । अलौकिक चेतना में जानने और देखने की क्षमता बढ़ जाती है। जो जानता-देखता है, वह घटना को भोगता नहीं। उसे न भोगना ही सहिष्णुता है। अलौकिक चेतना : संतुलन का सूत्र लौकिक चेतना में प्रवृत्ति की बहलता है। उससे एक असंतुलन पैदा हो गया है । प्रवृत्ति और तनाव-इन दोनों में निकट का संबंध है । अलौकिक चेतना जागती है, प्रवृत्ति और निवृत्ति का संतुलन बन जाता है। प्रवृत्ति के क्षण में अनुकंपी (सिम्पेथोटिक नर्वस सिस्टम) नाड़ी संस्थान सक्रिय हो जाता है। जप के द्वारा परानुकंपी (पेरासिम्पेथोटिक नर्वस सिस्टम) नाड़ी संस्थान को सक्रिय बनाकर दोनों में संतुलन स्थापित किया जा सकता है। लौकिक चेतना में राग और द्वेष के लिए अवकाश है इसलिए उसे पक्षपात से मुक्त नहीं देखा जा सकता। अलौकिक चेतना में समता का विकास होता है । तटस्थता उसकी सहज निष्पत्ति है । बोनों का योग जरूरी है लोकिक चेतना में मनुष्य बाहर की ओर फैलता जाता है। बाहर की ओर फैलने का अर्थ है-बंधते जाना । जो मनुष्य जितना बाहर की ओर जाता है, उतना ही अपने को समस्या से घिरा हुआ पाता है । अलौकिक चेतना का विकास अपने आपको देखने का विकास है । यह उपाय है समस्या से मुक्त होने का। लौकिक चेतना के बिना जीवन यात्रा नहीं चलती इसलिए उसे छोड़ देने की बात नहीं कही जा सकती। अलौकिक चेतना के बिना शान्तिपूर्ण और आनन्दपूर्ण जीवन नहीं जीया जा सकता इसलिए उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। जरूरी है-लौकिक चेतना के साथ अलौकिक चेतना का योग । उसके लिए जरूरी है अपनी प्रेक्षा, अपने आप को देखने का अभ्यास । चैतन्यानुभव : अभ्यास-क्रम चिन्तन और अन्तर्-दर्शन-मन की ये दोनों क्रियाएं जहां समाप्त हो जाती हैं, मन स्वयं समाप्त हो जाता है वहां शुद्ध चैतन्य का अनुभव प्रकट होता है। यह वीतराग चेतना का अनुभव है। इसे समाधि भी कहा जा सकता है। इस साधना में अतीत और भविष्य समाप्त हो जाते है, केवल वर्तमान क्षण का अनुभव रहता है। वर्तमान का अनुभव दीर्घकाल तक चलता है. वही ध्यान हो जाता है और दीर्घकाल ध्यान ही समाधि हो जाती है। स्थिर और सुख आसन में बैठे, वर्तमान के संवेदनों या प्रकंपनों को पकड़े; दढतापूर्वक उसे पकड़े रहे । इस अभ्यास से ध्यान की स्थिति बन जायेगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003056
Book TitleChitt aur Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size16 MB
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