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चेतना के स्तर
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ध्यान के प्रसंग में इसकी व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि जो प्रतिक्रियात्मक चेतना है, वह है लौकिक चेतना और जो प्रतिक्रिया मुक्त या क्रियात्मक चेतना है, वह है अलौकिक चेतना । प्रतिक्रियात्मक चेतना वाला व्यक्ति प्रवाहपाती होता है। वह प्रवाह के पीछे-पीछे चलता है। व्यवहार है प्रतिक्रियात्मक
एक दिन में मादमी पचास-सौ बार प्रतिक्रियाएं कर लेता है। उसका सूत्र ही बन जाता है-"शठे शाठ्यं समाचरेत्'-जैसे को तैसा । आदमी में भाव बनते हैं, बदलते हैं, फिर बनते हैं, फिर बदलते हैं । एक स्थिति आती है और आदमी हंसने लग जाता है, दूसरी स्थिति आती है और आदमी रोने लग जाता है । एक स्थिति में आदमी क्रोध से लाल-पीला हो जाता है, दूसरी स्थिति में वह प्रेम पूर्ण व्यवहार करता है। यह सारा व्यवहार अहेतुक नहीं होता। इन विभिन्न व्यवहारों के भाव हमारे भीतर बने हुए हैं। एक त्रिपदी हैव्यवहार, व्यवहार की पृष्ठभूमि में भाव और भाव के पीछे लौकिक चेतना । यह एक चक्र है । अमुक प्रकार की वस्तु सामने आए तो अमुक भाव और अमुक भाव जागेगा तो अमुक प्रकार का प्रतिक्रियात्मक व्यवहार होगा। प्रतिक्रिया मुक्त है अलौकिक चेतना
यह सारा प्रतिक्रियात्मक व्यवहार है । सारा जीवन इसी व्यवहार से भरा पड़ा है । यह लौकिक चेतना का परिणाम है। इसका तात्पर्य हैसामने जो भी आए, उसी में बह जाना, उसे स्वीकार कर लेना।
___अलौकिक चेतना का अर्थ है-प्रतिक्रियामुक्त चेतना। यह लोकोत्तर चेतना है। इसका जागरण होने पर प्रतिक्रिया नहीं होती। अलौकिक चेतना के परिणाम
जब अलौकिक चेतना जागती है तब सारे मानवीय मूल्य बदल जाते हैं । लोकिक चेतना में राग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। राग का तात्पर्य है पदार्थ में सुख की खोज। अलौकिक चेतना का जागरण होते ही राग का स्थान विराग ले लेता है । विराग का तात्पर्य है-अपने भीतर सुख की खोज ।
जब लौकिक चेतना में भोग सम्मत है। भोग का अर्थ है-इन्द्रिय के स्तर पर जीना । अलोकिक चेतना को जीने वाला इन्द्रिय संवेदनों से ऊपर उठकर जीता है। उसके लिए त्याग एक जीवन-मूल्य बन जाता है ।
लोकिक चेतना में क्रोध की आवश्यकता को नहीं नकारा गया । प्रशासन के लिए अथवा कर्मचारियों से काम लेने के लिए क्रोध एक आवश्यक तत्त्व है। अलौकिक चेतना में प्रशासन की अवधारणा बदल जाती है। क्रोध के स्थान पर क्षमा आसीन हो जाती है।
लौकिक चेतना में प्रतिक्रिया भी सम्मत है । प्रतिक्रिया न करने वाला
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