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चित्त और मन
संवेदना नहीं हुई । नाटक होता रहा और उनका काम चलता रहा । जान लिया पर वेदना के प्रवाह में वे नहीं बहे। प्रवाह-पाती चेतना वेदना का हेतु है। बहुत सारे लोग सोचते हैं कि मैं अकेला रहकर क्या करूंगा ? जो काम सब लोग कर रहे हैं, उसमें फिर मुझे क्या कठिनाई है। काम करने की कोई जरूरत नहीं है पर वह सोचता है कि जब सब कर रहे हैं तब मैं अकेला बचकर क्या करूंगा ? बहुत सारे लोग इसी भाषा में सोचते हैं कि जिसे सब करें, वह काम कर लेना चाहिए। कोई जरूरत नहीं सोचने और विचारने की। यह होती है प्रवाहपाती चेतना । एक होती है लोकसंज्ञा-लोकानुकरण, जो अनुकरण के आधार पर किया जाता है, लौकिक मान्यताओं के आधार पर किया जाता है। बहुत सारी ऐसी लौकिक मान्यताएं होती हैं, जिनके आधार पर हमारी चेतना का निर्माण होता है और हम काम करते चले जाते
कसौटी
हम बहुत प्रभावित हो जाते हैं। बाहर कोई घटना घटित होती है, किसी के यहां दुःख हुआ, कोई रोता है तो सुनने वाला भी रुआंसा हो जाता है। 'थावच्चापुत्र' के पड़ोस में बच्चे का जन्म हुआ, एक सुनहला अवसर आया, गीत गाये जाने लगे। 'थावच्चापुत्र' प्रफुल्ल हो गया और खिल उठा। कुछ दिन बाद 'थावच्चापुत्र' के पड़ोस में मृत्यु हो गई, करुण क्रन्दन और चीत्कार होने लगा। 'थावच्चापुत्र' का मन रुआंसा हो गया।
___ हम बहुत सारे प्रभावों को ग्रहण करते हैं, और तभी ग्रहण करते हैं जब हम वृत्ति के स्तर पर, वेदना की चेतना के स्तर पर जीते हैं। हम एक कसोटी अपने हाथ में रखें । मन पर अगर दूसरी स्थितियों का प्रभाव होता है, सामने जैसा घटित होता है, उसका प्रभाव होता है तो मानना चाहिए-हम वेदना का जीवन जी रहे हैं। यदि सामने घटित होने वाली घटानाएं हमें प्रभावित नहीं करती है तो मानना चाहिए-हम ज्ञान का जीवन जी रहे हैं, ज्ञान के स्तर का जीवन जी रहे हैं, वेदना के स्तर का जीवन नहीं जी रहे
ध्यान और अलौकिक चेतना
साधना के संदर्भ में दो चेतनाओं का विमर्श आवश्यक होता है। एक है लौकिक चेतना और दूसरी है अलौकिक चेतना । ध्यान के द्वारा अलौकिक चेतना का विकास होता है। जो व्यक्ति अपने भीतर नहीं झांकता, उसकी चेतना लौकिक होती है । जिस व्यक्ति ने भीतर देखना शुरू कर दिया, उसमें अलौकिक चेतना का जागरण प्रारम्भ हो जाता है।
प्रश्न होता है क्या है लौकिक चेतना और क्या है अलौकिक चेतना ?
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