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वेतना के स्तर
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समाप्त नहीं होता। यदि दुःख को समाप्त करना है तो द्वंद्व-चेतना को समाप्त करना होगा।
__ कोई भी मनुष्य समस्या नहीं चाहता, दुःख नहीं चाहता। यही एक प्रेरणा है द्वंद्व-चेतना को समाप्त करने की। यहां एक व्याप्ति बनती है। जब तक द्वन्द्व-चेतना होगी तब तक दुःख निश्चित ही होंगे । उनका कभी अन्त नहीं होगा। द्वंद्व-चेतना का होना ही दुःख का होना है और द्वंद्व-चेतना का नहीं होना ही दुःख का नहीं होना है। समस्याओं और दुःखों से छुट्टी पाने का एक ही उपाय है और वह है द्वंद्व-चेतना का समापन । अभौतिकता की चाह
द्वन्द्व चेतना के समापन का एक और हेतु है। वह यह है कि मानव में द्वंद्वातीत चेतना की खोज प्रारंभ होती है और मनुष्य सोचता है कि द्वंद्व-चेतना के परे भी कोई निद्वंद्व चेतना हो जो मनुष्य को पूर्णता दे सके, अपूर्णता समाप्त कर सके। यह अभौतिकता की चाह जो अन्तर में होती है, उसे समझने का मौका मिल जाता है।
अभौतिक सत्ता की चाह, चेतन तत्त्व की चाह, जिसका हमें जीवन की चका-चौंध में, अन्धेरे में पता ही नहीं लगता था किन्तु जहां भौतिक पदार्थों का सेवन करते-करते जीवन में घोर अन्धेरा छा जाता है तब पता चलता है कि भीतर में एक और भी चाह है, जो इन चाहों से बहुत बड़ी चाह है। वह चाह ही इस सचाई को प्रकट करती है कि द्वंद्व-चेतना से परे भी मनुष्य निद्वंद्वचेतना को चाहता है। इस द्वंद्वातीत चेतना का नाम है—सामायिक । सामायिक के घटित होने पर मन की गति पर एक अंकुश लग जाता है। जब मन की गति पर अंकुश होता है तब समस्याएं समाप्त होने लगती हैं। उस स्थिति में समस्यामुक्त, दुःखमुक्त जीवन का अभ्यास प्रारंभ हो जाता है। ज्ञान और वेदना स्तरीय चेतना
. हमारी चेतना के दो स्तर होते हैं । एक होता है ज्ञान का स्तर और एक होता है वेदना (वृत्ति या संज्ञा) का स्तर । अज्ञानी आदमी वेदना के स्तर पर जीता है और ज्ञानी आदमी ज्ञान के स्तर पर जीता है। जानना ज्ञानी आदमी काम है। क्या घटित हो रहा है, उस तत्त्व को जानना ज्ञानी का काम है । ज्ञानी दुनिया में आंख मूंदकर नहीं चलता। वह सब कुछ जानता है और जान कर चलता है किन्तु वेदन नहीं करता यह है ज्ञान की स्थिति । दूसरी है वेदना की स्थिति । अज्ञानी आदमी जानता कम है या नहीं जानता किन्तु वेदना करता है । वेदना के स्तर पर जीता है। वेदना का हेतु
श्रीमज्जयाचार्य ने देखा-नाटक हो रहा है पर उनके मन में कोई
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