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चित्त और मन
घटित होती है ।
उसके वश में हो जाता है । यही बात शक्ति- जागरण में शक्ति जागरण हो जाने पर जो व्यक्ति जागृत शक्ति की मांगें पूरी कर देता है तो वह शक्ति उसके लिए बहुत उपयोगी हो जाती है । यदि वह उसकी मांगें पूरी नहीं कर पाता तब वह जागी हुई शक्ति उसी को ग्रसित कर जाती है, उसके लिए वह शाप बन जाती है । द्वंद्व चेतना जब तक विद्यमान रहती है तब तक मनुष्य को जो चाहिए, वह उपलब्ध नहीं कर सकता । यदि शक्ति जागृत करने वाला व्यक्ति द्वंद्व की चेतना में ही है तो वह हर्ष और शोक के झूले में झूलता रहेगा । हृषं होगा तो भी तीव्र होगा और शोक होगा तो भी तीव्र होगा । शक्ति-जागरण के कारण भिन्नता आएगी किन्तु हर्ष और शोक के परे की स्थिति में नहीं जा पाएगा। वह शक्ति द्वन्द्व को ही बढ़ायेगी, घटायेगी नहीं ।
द्वंद्व चेतना आवेगों के लिए उर्वर भूमि है, जहां सारे आवेग अंकुरित होते हैं । जितनी उत्तेजनाएं हैं, वे सारी तनाव की स्थिति में पैदा होती हैं । जब व्यक्ति में तनाव नहीं होता तब आवेग नहीं आ सकता, उत्तेजना नहीं आ सकती, वासना का उभार नहीं हो सकता । ये सब तब आते हैं जब तनाव की स्थिति होती है । तनाव इनका जनक है। प्रत्येक संस्कार पहले तनाव पैदा करता है । तनाव पैदा किए बिना कोई भी संस्कार नहीं उभरता ।
द्वन्द्व चेतना : निष्पत्ति
द्वन्द्व-चेतना तनाव उत्पन्न करती है । जब तनाव होता है तब मानसिक रोग और मानसिक विकार उभरते हैं । वे धीरे-धीरे संचित होते जाते हैं और एक बिन्दु ऐसा आता है कि मानसिक विकार मानसिक पागलपन के रूप में बदल जाता है । पागलपन की स्थिति आ जाती है । वर्तमान जगत् में मानसिक विकारों और मानसिक उन्मादों की जितनी भयंकर स्थिति है संभवत: अतीत में वैसी नहीं रही होगी । आज मानसिक विकारों और मानसिक पागलपन को बढ़ाने के लिए बहुत अवकाश है, सुविधाएं हैं। आज मानसिक विकार इतने बढ़ गए हैं कि उनका समाधान नहीं हो रहा है । उनकी चिकित्सा असंभव - सी प्रतीत हो रही है । समस्या मुक्ति का मार्ग
द्वन्द्व-चेतना समस्याओं की जननी है । वहां सभी प्रकार की समस्याएं उभरती हैं । उनका कहीं अन्त नहीं आता । जब तक द्वंद्व चेतना है तब क ज्ञान, दर्शन और शुद्ध शक्ति का उपयोग कार्यकर नहीं होता । मूर्च्छा उत्पादक केन्द्र है । वह आवेग को उत्पन्न करती है, द्वन्द्व को उत्पन्न करती है । इस स्थिति में ज्ञान, दर्शन और शक्ति के होने पर भी दुःख
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