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चेतना के स्तर
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लम्बे समय तक सधे हुए ध्यान में मन विलीन हो जाता है। मन के विलीन होने पर इन्द्रियां अपने-आप शान्त हो जाती हैं। इन्द्रिय और मन के स्रोत रुक जाने पर शुद्ध चैतन्य का अनुभव शेष रहता है। यह निरालंबन ध्यान है। एकाग्रता या मानसिक ध्यान में कोई-न-कोई आलंबन बना रहता है, फिर वह स्थूल हो या सूक्ष्म । निरालंबन ध्यान में केवल चैतन्य का अनुभव रहता है इसलिए कोई आलंबन नहीं होता। जैन आचायों ने इसे नश्चयिक (वास्तविक) ध्यान कहा है। सालंबन या एकाग्रता का ध्यान व्यवहारिक ध्यान है। निरालंबन ध्यान की स्थिति प्राप्त होने पर ध्यान का प्रयत्न नहीं करना होता, वह अप्रयत्न से होता है। एकाग्रता का ध्यान उस तक पहुंचाने के लिए है । इन्द्रिय, मन और कषाय-चेतना के प्रकंपन जैसे-जैसे शान्त या क्षीण होते हैं वैसे-वैसे निरालंबन ध्यान की ओर चरण आगे बढ़ते हैं। निर्विचार ध्यान
निर्विचार ध्यान का अर्थ ही है--स्वभाव में ठहर जाना, अपने में स्थिर हो जाना, अपनी प्रकृति में ठहर जाना, अपनी मूल चेतना में ठहर जाना। कोरा ज्ञान होना, और कुछ भी नहीं होना। कोरा ज्ञान होना ही निविचार है। वहां विचार नहीं, केवल दर्शन है, केवल बोध है। हम भी केवल ज्ञानी हो सकते हैं। जहां भी मन का विचरण बंद हुआ, मन आत्मा में लीन हुआ, कोरी चेतना का व्यापार शुरू हुआ और हम केवल ज्ञानी हो गए। केवल ज्ञान का मतलब है शुद्ध ज्ञान, कोरा ज्ञान, ज्ञान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। निविचार ध्यान
शुद्ध चेतना या निर्विचार ध्यान की कसौटी है सुख-दुःख में सम हो जाना । आचार्य कुन्दकुन्द ने बताया है कि शुद्ध चेतना के आने पर साधक सुख और दुःख में समान हो जाता है।
__ जहा शुद्धता होती है वहां कोई विकार नहीं होता। जहां शुद्ध चेतना होती है वहां सबके लिए स्थान हो सकता है किन्तु अशुद्ध चेतना में सबके लिए स्थान नहीं हो सकता । भगवान् शुद्ध हैं। शुद्ध के जगत् में सब कुछ समा सकता है । अच्छा हो, बुरा हो, गंदा हो, साफ-सुथरा हो, सुघड़ हो, बेडौल हो, कैसा भी हो, सब कुछ समा सकता है । अशुद्धता में सब नहीं समा सकता। वहां सीमाएं होती हैं । इतना जानो, इतना देखो, इतना अनुभव करो-ये सीमाएं हैं । शुद्धता में सब सीमाएं समाप्त हो जाती हैं । सब कुछ निस्सीम हो जाता है। जब हमारी चेतना शुद्ध हो जाती है, उस स्थिति में चाहे दुर्जन हो या सज्जन, बुरा हो या अच्छा, कैसा भी हो, कोई कठिनाई उत्पन्न नहीं होती।
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