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चेतना के स्तर
जब तक अन्तःकरण नहीं बदलता, आदमी भीतर से नहीं बदलता तब तक बाहरी परिवर्तन हो जाने पर भी बहुत कुछ परिवर्तन नहीं होता।
__ अपेक्षा इस बात की है कि आदमी भीतर से बदले, जो भीतर में है उसे बदले । उसे यह बात समझ में आ जाए कि बुराई में ले जाने वाला, बुराई का आचरण कराने वाला जो है, वह भीतर रहने वाला काम और क्रोध है।
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतविमोहयत्येष, ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥ बुराई : माध्यम
आदमी के अन्तःकरण में रहने वाला काम बुराई करता है पर उसके माध्यम क्या हैं ? गीता में उसके तीन माध्यम बतलाए गए हैं-इन्द्रियां, मन
और बुद्धि । काम पैदा होता है इन्द्रियों में, मन और बुद्धि में । आदमी को बुराई में व्याप्त करने वाली ये तीन कामनाएं हैं-इन्द्रिय कामना, मानसिक कामना और बौद्धिक कामना । इन्द्रिय में कामना की एक तरंग उठती है और वह भान भूल जाता है। उसमें विवेक नहीं रहता, लुप्त हो जाता है। बड़ेबड़े साधक भी खाने की चीज के लिए लड़ पड़ते हैं। इसका कारण है कि उनमें इन्द्रिय की कामना छूटी नहीं है । इन्द्रिय विषय : इन्द्रिय विकार
दो बाते होती हैं-एक है इन्द्रिय का विषय और दूसरी है इन्द्रिय का विकार । दोनों भिन्न हैं । विषय छूट जाने पर भी विकार नहीं छूटता । रस या स्वाद का अनुभव करना-यह इन्द्रिय का विषय है। वस्तु मीठी है या कड़वी है, सरस है या विरस है-यह जानना इन्द्रिय का विषय है। जब उसके साथ विकार जुड़ता है तब वस्तु मीठी या कड़वी, सरस या विरस नहीं रहती, वह अच्छी या बुरी बन जाती है, स्वादिष्ट या अस्वादिष्ट बन जाती है। जब अच्छी-बुरी की भावना अथवा स्वादिष्ट-अस्वादिष्ट की भावना जागती है तब इन्द्रिय-विकार पैदा होता है । इन्द्रिय-विकार से प्रस्त आदमी मनोज्ञ वस्तु की प्रशंसा करते-करते नहीं अघाता और अमनोज्ञ वस्तु की निंदा भी उतनी ही मात्रा में करने लग जाता है ।।
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