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चित्त और मन
बाद ध्यान की धारा रूपान्तरित हो जाती है। लम्बे समय तक ध्यान करने वाला अपने प्रयत्न से उस धारा को नये रूप में पकड़कर उसे और प्रलंब बना देता है।
ध्यान सत्य को खोजने की प्रक्रिया है। जितने भी सत्य खोजे गए हैं वे सब ध्यान के माध्यम से ही खोजे गए हैं । चंचल चित्त वाले व्यक्ति ने कभी किसी नये सत्य की खोज नहीं की। उसने तर्कों और विकल्पों के द्वारा सत्य को तोड़ा-मरोड़ा है। चंचल चित्त वाला व्यक्ति कभी सत्य को नहीं खोज सकता। जिसे सत्य खोजना है उसे चित्त की स्थिरता और शांतता में प्रवेश करना ही पड़ेगा।
चित्त की स्थिरता: निरालंबन ध्यान
निरालंबन ध्यान का अभ्यास करते-करते मन दीर्घकाल तक एकाग्र होने लग जाता है । एकाग्रता की अन्तिम परिणति विचार शून्यता है । ध्यान के आरम्भ काल में किसी एक लक्ष्य पर चित्त की एकाग्रता होती है और अन्त में वह लक्ष्य छूट जाता है, केवल चित्त की स्थिरता रह जाती है। अनेक साधकों का यह अनुभव है कि सालम्बन ध्यान में योग्यता प्राप्त कर लेने पर निरालंबन ध्यान की योग्यता स्वयं प्राप्त हो जाती है।
। कुछ साधक भिन्न प्रकार से सोचते हैं । उनका चिन्तन है कि सालंबन ध्यान परावलम्बी ध्यान है। उनकी दृष्टि में उसकी उपयोगिता नहीं है। उनका मानना है-प्रारम्भ से ही विचार-शून्यता का अभ्यास करना चाहिए।
विचार शून्यता ध्यान की वास्तविक स्थिति है, इसमें कोई संदेह नहीं। सालम्बन ध्यान में ध्याता और ध्येय भिन्न होते हैं, जबकि निरालम्बन ध्यान में ध्याता और ध्येय के बीच में कोई भेद नहीं होता। सालम्बन ध्यान में चित्त बाह्य विषयों तर स्थित होता है जबकि निरालम्बन ध्यान में वह आत्मगत हो जाता है-जिस चैतन्य केन्द्र से वह प्रवाहित होता है, उसी में जाकर विलीन हो जाता है। निरालम्बन ध्यान से आत्मा की आवृत और सुषुप्त शक्तियां जितनी जागृत होती हैं उतनी सालम्बन ध्यान से नहीं होती। सालम्बन ध्यान का प्रभाव मुख्य रूप से नाड़ी-संस्थान और चित्त पर होता है। निरालम्ब ध्यान का मुख्य प्रभाव चैतन्य केन्द्र पर होता है ।
प्रश्न केवल क्षमता का है। यदि किसी व्यक्ति में निरालम्बन ध्यान की क्षमता सहज हो तो उसे सालम्बन ध्यान की अपेक्षा नहीं होगी किन्तु जो प्रारम्भ में निरालम्बन ध्यान न कर सके, उसके लिए यह आवश्यक है कि वह सालम्बन ध्यान के द्वारा निरालम्बन ध्यान की योग्यता प्राप्त करे।
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