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चित्त और मन संस्कार आन्तरिक व्यक्तित्व में हैं। वह संस्कारचित्त स्थूलचित्त वृत्ति का निर्माण करता है । आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ-ये सारी वृत्तियां और संज्ञाएं संस्कार-चित्त या अध्यवसाय से आती हैं और इस स्थूल चित्त में आकर प्रगट होती हैं। फिर स्थल चित्त की क्रिया का संचालन या संवहन मन करता है। मन मात्र माध्यम है। यह मूलस्रोत नहीं है, क्रिया तंत्र है इसलिए जो रूपान्तरण होता है, वह मानसिक स्तर पर कभी नहीं होता, वह होता है चित्त के स्तर पर, सूक्ष्म चित्त के स्तर पर। चित्त की निर्मलता
प्रेक्षाध्यान के संदर्भ में भावशुद्धि की बात कही जाती है। भावशुद्धि का अर्थ है, चित्त की निर्मलता, राग-द्वेषमुक्त चित्त की स्थिति । जिसने भावशुद्धि की बात को नहीं समझा, वह चाहे चैतन्यकेन्द्र-प्रेक्षा का प्रयोग करे, चाहे लेश्याध्यान या श्वासप्रेक्षा का प्रयोग करे, बहुत सफल नहीं हो सकता। ये सारे भावशुद्धि के माध्यम हैं। भावशुद्धि जितनी प्रबल होगी, सारे माध्यम शक्तिशाली बन जाएंगे। यदि भावशुद्धि है तो श्वास-दर्शन भी शक्तिशाली बन जाएगा। यदि भावशुद्धि पर ध्यान नहीं है, लक्ष्य का दृढ़ निर्धारण नहीं है तो जो लाभ होना चाहिए, वह लाभ नहीं हो पाएगा । भावशुद्धि के लक्ष्य का निर्धारण करने को हम इष्ट का संकल्प कहें, चाहे परमात्मा का सान्निध्य कहें, चाहे आत्मा का सान्निध्य कहें, कुछ भी कहें, राग-द्वेषमुक्त भाव को लेकर ध्यान में बैठना, उसकी सन्निधि में रहना, यह परम रहस्य है ध्यान का। जो इस रहस्य को नहीं समझता, उसमें रूपान्तरण नहीं हो सकता। व्यक्ति ने एक बार ध्यान किया, शान्ति मिली, ध्यान संपन्न किया
और वे ही वृत्तियां उसे सताने लग जाती हैं, वृत्तियों का चक्र चाल हो जाता है, क्योंकि उसने वृत्तियों का उपशम किया, पर उन्हें क्षीण नहीं किया। जब तक वृत्तियां क्षीण नहीं होती, उपशांत मात्र होती हैं तब फिर उभर जाती हैं। पानी के मल को जब तक साफ कर बाहर नहीं फेंक दिया जाता, तब तक मैल नीचे दब जाता है और लगता है कि पानी साफ हो गया। परन्तु जब पानी हिलता है तब पुनः मटमैला हो जाता है । मैल का शोधन आवश्यक होता है। इसी प्रकार भाव की निर्मलता बहुत आवश्यक है। जब निर्मल चैतन्य और आत्मा का आलम्बन लिया जाता है, तब लक्ष्यसिद्धि होती है। निर्माण चित्त
भावशुद्धि का प्रयोग प्रेक्षा-ध्यान की प्राण-प्रतिष्ठा का प्रयोग है। जब भावशुद्धि घटित होती है तब भीतर से जो संस्कार उभर कर आवे. हैं, वृत्तियां उभरती हैं, उन सब का उपशमन होता है, वे धीरे-धीरे क्षीणः होती जाती हैं।
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