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________________ 'चित्त २४३ चालू रहती है । यही तृष्णा स्थूल चित्त में प्रगट होकर लोभ या लोभ-जनित प्रवृत्तियां उत्पन्न करती हैं। तीसरा है प्रमादचित्त। यह मूर्छा उत्पन्न करता है । चौथा है कषायचित्त । यह क्रोध, अहंकार, कपट, लोभ, राग-द्वेष, 'प्रियता-अप्रियता-इन सबको उत्पन्न करता है। ये सब आंतरिक प्रवृत्तियां हैं। इन प्रवृत्तियों का हमारे स्थूल शरीर, चित्त या मन के साथ कोई संबंध नहीं है । ये नितान्त इस शरीर और शरीर की चेतना से परे हैं। इनका सारा संबंध आन्तरिक व्यक्तित्व या चेतना से है। अन्तरचित्त में ये सब घटित होते हैं। . 'चित्त और मन से परे जो व्यक्तित्व चित्त और मन का है, दृश्यमान है, वह बुद्धिगम्य होता है। आन्तरिक व्यक्तित्व चित्त और मन से सर्वथा परे है । वह नितान्त आन्तरिक है। वहीं पुनर्जन्म, पूर्वजन्म, कर्मबंध, संस्कार आदि घटनाएं समझ में आ सकती हैं। यदि इस स्थूल शरीर, स्थूल चित्त या स्थूल मन के आधार पर पूर्वजन्म, पुनर्जन्म आदि की व्याख्या करें तो हम सफल नहीं हो सकते। यदि हम उस भूमिका पर खड़े होकर इन सारी बातों को व्याख्यायित करते हैं तो आदमी की प्रवृत्तियों के कारण भी खोंजे जा सकते हैं। आदमी जानता है कि लोभ बुरा है, फिर लोभ की वृत्ति उसमें क्यों जागती है ? आदमी जानता है कि काम-वासना बुरी है, फिर यह वृत्ति क्यों उभरती है ? बुद्धि कहती है-घृणा करना बुरा है, क्रोध करना बुरा है, फिर आदमी घृणा क्यों करता है ? क्रोध क्यों करता है ? यदि इस स्थूल शरीर और स्थूल चेतना में इनका समाधान खोजना चाहें तो समाधान प्राप्त नहीं होता। वहां इतना ही कहना पड़ता है कि ऐसी परिस्थिति थी, ऐसा वातावरण था; इसलिए ऐसा घटित हो गया । वास्तविक समाधान नहीं मिलता यह एक द्वन्द्व है कि आदमी नहीं चाहता कि वह बुरा काम करे, अनैतिक आचरण या अपराध करे, नशा या व्यसन में फंसे, फिर भी वह यह सब कुछ करता है। यह ज्ञान और आचरण का द्वन्द्व, कथनी और करनी का द्वन्द्व-इनकी व्याख्या स्थूल चित्त या बुद्धि के आधार पर नहीं की जा सकती । ये बुद्धि और स्थूल चेतना की सीमा से परे की बातें हैं। इनकी व्याख्या आन्तरिक व्यक्तित्व या अध्यवसाय की भूमिका पर ही की जा सकती है । मन मूल स्रोत नहीं है ___ मनोविज्ञान में भी अनेक प्रवृत्तियों की व्याख्या अचेतन मन के आधार पर की गई है । वह भी एकमार्ग है। उससे बाहरी व्यक्तित्व को लांघकर भीतर में प्रवेश हुआ है। किन्तु जैन दर्शन की पहुंच प्रारंभ से ही बहुत आगे की थी और आज उसका बहुत विकास हुआ है। अब हम जानते हैं कि हमारे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003056
Book TitleChitt aur Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size16 MB
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