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चित्त
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करता है तब चित्त कुछ दब जाता है । जब मन शांत होता है तब चित्त अधिक सक्रिय बन जाता है । अमनस्क अवस्था में मन शांत होता है किन्तु चित्त अधिक प्रज्वलनशील और सक्रिय बन जाता है ।
अमन की स्थिति
हम ऐसा अभ्यास करें, जिससे मन की भूमिका से हटकर चित्त की भूमिका पर चले जाएं। हम मन को उत्पन्न न करें और अधिक से अधिक अमन की स्थिति में रहना सीखें । साधना का यही प्रयोजन है कि हम मन को पैदा न करें, मन को चंचल बनाने वाली चित्त की चेतना को स्थिर करें और अमन की स्थिति में रहें ।
ज्ञाता द्रष्टाभाव का जितना अधिक विकास होगा, समता का जितना अधिक विकास होगा, राग द्वेष से परे रहने का जितना अधिक विकास होगा, उतना ही विकास अमन की स्थिति का होगा । जब व्यक्ति अमन की स्थिति में जाता है तब दृष्टि में परिवर्तन होना प्रारम्भ हो जाता है । हम एक आंख से प्रियता का दर्शन करते हैं और दूसरी आंख से अप्रियता का दर्शन करते हैं । हमारा समूचा जीवन प्रियता और अप्रियता को देखने में बीत जाता है । इसके अतिरिक्त आंख के सामने कोई दर्शन नहीं है । प्रियता और अप्रियता से परे का कोई दर्शन प्राप्त नहीं है । उसे देखने के लिए हमें तीसरी आंख चाहिए । इस तृतीय नेत्र के द्वारा हम प्रियता और अप्रियता से हटकर पदार्थ को केवल पदार्थ की दृष्टि से और यथार्थ को केवल यथार्थ की को केवल सत्य की दृष्टि से देख सकें, यह अपेक्षित है । जिनभद्र की परिभाषा
दृष्टि से देख सकें, सत्य
जिनभद्र के अनुसार स्थिर चेतना ध्यान और चल चेतना चित्त हैं'जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं, जं चलं तं चित्तं ।
पारा उछलता रहता है, चोट खाता रहता है, कभी ऊपर जाता है, कभी नीचे आता है, ठीक यही दशा चित्त की भी होती है । किन्तु जैसे पारा बंध जाता है वैसे ही चित्त भी बंध जाता है । उस स्थिति में चित्त की शक्तियां क्षीण कम होती हैं, संचित ज्यादा होती हैं । जब चित्त शक्तिशाली
द्वारा तब वह स्थिर हो
की तरह इधर-उधर नहीं
बनता है, सम्यक् साधनों और सम्यक् उपायों के जाता है और स्थिर बना हुआ चित्त फुटबाल उछलता, पारे की तरह कांपता नहीं, किन्तु जमकर रह जाता है । वह घटना को देखता है पर घटना के स्पर्श से आगे नहीं उछलता, पीछे भी नहीं सरकता, एक स्थान पर खड़ा रहता है । यह है चैतन्य प्रतिष्ठा । जब तक हमारा चैतन्य प्रतिष्ठित नहीं होता तब तक समाधि की घटना घटित नहीं होती और जब चैतन्य अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है, तब सहज समाधि का
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