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उपयोग की भूमिका है। मन का स्वरूप चेतना की धारा से निर्मित होता है । वह अपने आप में न कलुषित है और न निर्मल, न चंचल है और न स्थिर । - जैसा उत्पादन होता है वैसा ही वह निर्मित हो जाता है ।
अशान्ति क्या है
चेतना अतीतकालीन विभिन्न संस्कारों से प्रभावित होती है । उसकी 'निर्मल धारा आती है और मन के साथ योग करती है तो मन निर्मल बनता - है । राग-द्वेष-रहित बनता है । चेतना के साथ मल आता है, आसक्ति आती है, अज्ञान आता है, राग-द्वेष आता है तो मन का स्वरूप दूसरा हो जाता है । -निर्मल चेतना का योग भी मन में सक्रियता लाता है और मलिन चेतना का योग भी उसमें सक्रियता लाता है। सक्रियता दोनों ओर से आती है किन्तु मन की स्थिति में अन्तर आ जाता है । उसका प्रवाह दो दिशाओं में विभक्त हो जाता है । राग-द्वेष-रहित चेतना का योग होने पर मन होता है पर आसक्ति नहीं होती । राग-द्वेष-युक्त चेतना का प्रवाह आता है तब मन भी होता है और आसक्ति भी होती है । यही चंचलता है। इसकी अतिरिक्त मात्रा या पुनरावर्तन ही अशान्ति है ।
- मानव मन की ग्रन्थियां
मन
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वस्तुतः कोई भी भोगोलिक राज्य उतना बड़ा नहीं है, जितना मनोराज्य है । कोई भी यान उतना द्रुतगामी नहीं है, जितना मनोयान है । कोई भी शस्त्र उतना संहारक नहीं है, जितना मनःशस्त्र है । कोई भी शास्त्र उतना • तारक नहीं है, जितना मनःशास्त्र है । उसकी ग्रन्थियों को फैलाया जाए तो वे पांचों महाद्वीपों में नहीं समा पातीं । इस छोटे-से शरीर में इन असंख्य ग्रन्थियों की संहति बहुत ही आश्चर्यजनक है । वे मुकुलित रहती हैं। सामग्री का योग मिलने पर उनके तार खुल जाते हैं । सामग्री का हमारे जीवन में बहुत बड़ा स्थान है । आत्मा की प्रत्येक प्रवृत्ति उससे प्रभावित है । समुदाय भी एक सामग्री है। इसके योग में मन की अनेक ग्रन्थियां संकुचित होती हैं तो अनेक विस्तार पाती हैं। मन विशाल होता है, समुदाय असत्य नहीं होता, विघ्न नहीं बनता । मन छोटा होता है, समुदाय बाधक बन जाता है । परिवार में दो आदमी बढ़ते हैं तो पृथक्करण की प्रवृत्ति जाग जाती है । कुछ व्यक्तियों को पृथक्करण नहीं भाता, भले फिर दस व्यक्ति बढ़ जाएं । ये दोनों मन की संकुचित और विकुचित ग्रन्थियों के ही कार्य हैं ।
जहां दस आदमी रहते हैं, वहां अवांछनीय भी कुछ हो जाता है । एक व्यक्ति उसे देख तत्काल उबल पड़ता है और दूसरा उसका परिमार्जन करता है । ये दोनों मन की उष्ण और शीत ग्रन्थियों के ही परिणाम हैं ।
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