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चित्त बोर मन
बुद्धि का कार्य है-विचार करना, सोचना, समझना, कल्पना करना, स्मृति, पहचान, नये विचारों का उत्पादन, अनुमान करना आदि-आदि ।
उत्साह का कार्य है-आवेश, स्फूर्ति या सामर्थ्य उत्पन्न करना। उद्योग का कार्य है-सामर्थ्य का कार्यरूप में परिणमन ।
भावना का कार्य है-तन्मयता उत्पन्न करना। चेतना की विभिन्न प्रवृत्तियां
चेतना का मूल स्रोत आत्मा है । उसकी सर्वमान्य दो प्रवृत्तियां हैंइन्द्रिय और मन । इन्द्रिय ज्ञान वार्तमानिक और अनालोचनात्मक होता है इसलिए उसकी प्रवृत्तियां बहुमुखी नहीं होतीं। मनस् का ज्ञान कालिक और आलोचनात्मक होता है इसलिए उसकी अनेक अवस्थाएं बनती हैं
संकल्प-बाह्य पदार्थों में ममकार । विकल्प-हर्ष-विषाद का परिणाम-मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं आदि । निदान-सुख के लिए उत्कट अभिलाषा या प्रार्थना । स्मृति-दृष्ट, श्रुत और अनुभूत विषयों की याद । जाति-स्मृति-पूर्व-जन्म की याद । प्रत्यभिज्ञा-पहचान ।। कल्पना-तर्क, अनुमान, भावना, कषाय, स्वप्न । श्रद्धान-मानसिक रुचि । लेश्या-मानसिक परिणाम । ध्यान-मानसिक एकाग्रता ।
स्मृति, जाति-स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान-ये विशुद्ध ज्ञान की दशाएं हैं। शेष दशाएं कर्म के उदय या विलय से उत्पन्न होती हैं । संकल्प, विकल्प, निदान, कषाय और स्वप्न-ये मोह प्रभावित चेतना के चिन्तन हैं। भावना, श्रद्धान, लेश्या और ध्यान-ये मोह-प्रभावित चेतना में उत्पन्न होते हैं तब असत् और मोह-शून्य चेतना में उत्पन्न होते हैं तब सत् बन जाते हैं। साधना का आधार
मन के स्वरूप को जानना इसलिए आवश्यक है कि वह हमारी साधना का मुख्य आधार है। उसी के आधार पर ध्यान करना है, उपलब्धियों तथा अनुपलब्धियों का लेखा-जोखा करना है। मन के साथ चेतना का योग न हो तो ध्यान की कोई आवश्यकता नहीं। फिर हम स्वयं सिद्ध बन जाते हैं। 'चेतना मन के साथ जुड़ी नहीं'-- इसका अर्थ है-मन सक्रिय होता ही नहीं। उस स्थिति में कोई विकल्प नहीं होता, संकल्प नहीं होता, चिन्ता नहीं होती। मन का यंत्र मृतवत् पड़ा रहता है । यह ध्यान की भूमिका है। यह शुद्ध
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