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________________ मन अव्यक्त और व्यक्त चेतना अनावृत चेतना व्यक्त ही होती है। अनावृत चेतना दोनों प्रकार की होती है-मन-रहित इन्द्रिय ज्ञान अव्यक्त होता है और मानस ज्ञान व्यक्त । सुप्त-मूच्छित आदि दशाओं में मन का ज्ञान भी अव्यक्त होता है, चंचलदशा में वह अर्ध-व्यक्त भी होता है। अव्यक्त चेतना को अध्यवसाय, परिणाम आदि कहा जाता है। अर्धव्यक्त चेतना का नाम है-हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा । यह दो इन्द्रियों वाले जीवों से लेकर अगर्भज पञ्चेन्द्रिय जीवों में होती है। इसके द्वारा उनमें इष्ट-अनिष्ट की प्रवृत्ति-निवृत्ति होती है। व्यक्त मन के बिना भी इन प्राणियों में सम्मुख आना, वापस लौटना, सिकुड़ना, फैलना, बोलना, करना और दौड़ना आदिआदि प्रवृत्तियां होती हैं। गर्भज पञ्चेन्द्रिय जीवों में दीर्घकालिकी संज्ञा या मन होता है । वे कालिक और आलोचनात्मक विचार कर सकते हैं। सत्य की श्रद्धा या सत्य का आग्रह रखने वालों में सम्यग-दृष्टि संज्ञा होती है। मानसिक ज्ञान का यथार्थ और पूर्ण विकास इन्हीं में होता है । मानसिक विकास मानसिक विकास के चार रूप हैं• औत्पत्तिकी बुद्धि-प्रतिभा या सहज बुद्धि । • वैनयिकी बुद्धि-आत्मसंयम के अनुशासन या गुरु-शुश्रूषा से उत्पन्न बुद्धि । • कामिकी बुद्धि-कार्य करते-करते अभ्यास से प्राप्त कोशल । • पारिणामिकी बुद्धि-आयु की परिपक्वता के साथ बढ़ने वाला अनुभव। मानसिक विकास सब समनस्क प्राणियों में समान नहीं होता। उसमें अनन्तगुण तरतमभाव होता है। दो समनस्क व्यक्तियों का ज्ञान परस्पर अनन्तगुणहीन और अनन्तगुण अधिक हो सकता है । इसका कारण उनकी आन्तरिक योग्यता, ज्ञानावरण के विलय का तारतम्य है । मानसिक योग्यता के तत्त्व मानसिक योग्यता या क्रियात्मक मन के चार तत्त्व हैं• बुद्धि-~-इन्द्रिय और अर्थ के सहारे होने वाला मानसिक ज्ञान ।। • उत्साह-कार्यक्षमता की योग्यता में बाधा डालनेवाले कर्म पुद्गल के विलय से उत्पन्न सामर्थ्य । • उद्योग-क्रियाशीलता। • भावना--पर-प्रभावित दशा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003056
Book TitleChitt aur Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size16 MB
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