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________________ चित्त और मन और परोक्ष-दोनों प्रकार के पदार्थ बनते हैं । शब्द, परोपदेश या आगम-ग्रन्थ के माध्यम से अस्पृष्ट, अरसित, अघ्रात, अदृष्ट, अश्रुत, अननुभूत, मूर्त और अमूर्त-सब पदार्थ जाने जाते हैं । यह श्रुत-ज्ञान है। श्रुत-ज्ञान केवल मानसिक होता है । कहना यह चाहिए—मन का विषय सब पदार्थ हैं किन्तु यह नहीं कहा जाता, इसका भी एक अर्थ है। सब पदार्थ मन के ज्ञेय बनते हैं किन्तु प्रत्यक्ष रूप से नहीं-श्रुत के माध्यम से बनते हैं इसलिए मन का विषय भुत है। श्रुतमनोविज्ञान इन्द्रिय-निमित्तक भी होता है और मनोनिमित्तक भी। इन्द्रियों के द्वारा शब्द ग्रहण होता है इसलिए इन्द्रियां उसका निमित्त बनती हैं । मन के द्वारा सामान्य पर्यालोचन होता है इसलिए वह भी उसका निमित्त बनता है। श्रुत-मनोविज्ञान विशेष पर्यालोचनात्मक होता है-यह उन दोनों का कार्य है। मन की व्यापकता : काल की दृष्टि इन्द्रियां सिर्फ वर्तमान अर्थ को जानती हैं। मन त्रैकालिक ज्ञान है। स्वरूप की दृष्टि से मन वर्तमान ही होता है। मन मन्यमान होता है-मनन के समय ही मन होता है। मनन से पहले और पीछे मन नहीं होता। वस्तुज्ञान की दृष्टि से वह कालिक होता है । उसका मनन वार्तमानिक होता है, स्मरण अतीतकालिक, संज्ञा उभयकालिक, कल्पना भविष्य कालिक, चिन्ता अभिनिबोध और शब्द-ज्ञान त्रैकालिक । कालिक संज्ञान में स्मृति और कल्पना का विकास होता है तथा उसमें भूत और भविष्य के संकलन की क्षमता होती है इसलिए मन को दीर्घकालिक संज्ञान भी कहा जाता है। विकास का तरतमभाव प्राणिमात्र में चेतना समान होती है, उसका विकास समान नहीं होता। ज्ञानावरण मन्द होता है, चेतना अधिक विकसित होती है। वह तीन होता है, चेतना का विकास स्वल्प होता है । अनावरण दशा में चेतना पूर्ण विकसित रहती है। ज्ञानावरण के उदय से चेतना का विकास ढंक जाता है किन्तु वह पूर्णतया आवृत कभी नहीं होती। उसका अल्पांश सदा अनावृत रहता है। यदि वह पूरी आवृत हो जाए तो फिर जीव और अजीव के विभाग का कोई आधार ही नहीं रहता । बादल कितने ही गहरे क्यों न हों, सूर्य की प्रभा रहती है । उसका अल्पांश दिन और रात के विभाग का निमित्त बनता है। चेतना का न्यूनतम विकास एकेन्द्रिय जीवों में होता है। उनमें सिर्फ एक स्पर्शन इन्द्रिय का ज्ञान होता है। स्त्यानद्धि-निद्रा-गाढ़तम नींद जैसी दशा उनमें हमेशा रहती है, इससे उनका ज्ञान अव्यक्त होता है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय-सम्मूच्छिम और पंचेन्द्रिय-गर्भज में क्रमशः ज्ञान की मात्रा बढ़ती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003056
Book TitleChitt aur Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size16 MB
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