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चित्त और मन
की प्रक्रिया है । उस समय में ऐसी समाधि घटित होती है. कि जिस समाधि पर कोई आंच नहीं आती। कोई भी बाहर की स्थिति उसमें क्षोभ पैदा नहीं कर सकती । सामायिक के लिए तीन बातें जरूरी हैं
१. मन की शिथिलता-मन को विकल्पों से खाली कर देना । २. शरीर की शिथिलता-शरीर को तनावों से मुक्त कर देना ।
३. प्रकंपनों का अग्रहण । प्रकंपन : मूल कारण
शरीर की चंचलता ही सारे प्रकम्पनों का मूल कारण है। तत्त्व की दृष्टि से विचार करें तो प्रवृत्ति वास्तव में एक ही है और वह है शरीर की। हम कहते हैं कि प्रवृत्तियां तीन हैं—मन की प्रवृत्ति, वचन की प्रवृत्ति और शरीर प्रवृत्ति । श्वास की प्रवृत्ति को हमने प्रवृत्ति माना ही नहीं । यथार्थ में प्रवृत्तियां तीन नहीं हैं, एक ही है। वह है शरीर की प्रवृत्ति । मन और वचन की जो प्रवृत्ति है, उसका काम है-शरीर के द्वारा प्राप्त सामग्री को छोड़ देना । बाहर से कुछ भी लेना, यह सारा का सारा काम शरीर का है। इसलिए वास्तव में प्रवृत्ति एक शरीर की ही है । ये दो योग-मन का योग
और वचन का योग--गौण हैं । प्रवृत्तिः तोन अंग
प्रवत्ति मात्र के तीन अंग हैं-लेना, परिणमन करना और छोड़ना । ग्रहण, परिणमन और विसर्जन-ये तीनों काम एक शरीर के ही होते हैं। मनोयोग और वचनयोग का काम केवल विसर्जन है, ग्रहण या परिणमन नहीं है। ग्रहण करने का कार्य काययोग का है, शरीर की प्रवृत्ति का है। मनोवर्गणा के पुद्गल और वचन वर्गणा के पुद्गल-इनका ग्रहण भी काययोग के द्वारा ही होता है।
___ शरीर को शिथिल करना, मन को खाली करना और प्रकम्पनों को ग्रहण न करना, उत्पन्न न होने देना-यह है सामायिक की पद्धति । सिद्धि के तीन उपाय
केवल जान लेने, उच्चारण कर देने या उपदेश दे देने से समता संपन्न नहीं होती। हम जो चाहते हैं, वह निष्पन्न नहीं होता। वह होता है क्रिया के द्वारा । सिद्धि के लिए हमारे आचार्यों ने तीन उपाय बतलाएं हैं
क्रिया मन्त्र
औषध
क्रिया का अर्थ है-एकाग्रता, स्थिरता । तीन घंटे तक एक विषय पर एकाग्रता करें तो एकाग्रता की सिद्धि मानी जाती है। इसका नाम है
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