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मन का विलय
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हमारा प्रयत्न
हम अमन की भूमिका और समन की भूमिका को साथ-साथ समझें । जब तक मन की भूमिका है तब तक इस बात को न सोचें कि मन को मिटा दें किन्तु इस बात को सोचें कि मन को कोई अच्छा आलंबन मिले । मन को शुद्ध या पवित्र आलंबन मिले और मन जो नाना प्रकार के आलंबनों में भटकता है, उस भटकाव को भुला दें और एक ही आलंबन में लंबे समय तक रह सके-ऐसा प्रयत्न करें। हमारे दो ही प्रयत्न हों-मन की भूमिका में पवित्र आलंबन और एक दिशा-गामिता, एक दिशागामी प्रवाह । मन की धारा एक दिशा में बहे । विभिन्न दिशाओं में बहने वाली मन की यह धारा समाप्त हो जाए और एक विशाल धारा के रूप में वह प्रवाहित हो और सबको अपने आप में समेट ले। मन को पहली भूमिका
मन को आलंबन देना है और उस धारा को एक ही दिशा में बहाना है-ये दो काम हैं मन की भूमिका में । हम श्वास का प्रयोग इसीलिए करते हैं कि मन केवल श्वास को देखता रहे। मन और श्वास-दोनों साथ-साथ चलें। दोनों सहयात्री बनें । हम इस आलंबन को न छोड़ें। इस डोरी को न छोड़ें। इसे दृढ़ता से पकड़े रखें। सहयात्रा बहुत बड़ा आलंबन है । श्वास के प्रति हमारा कोई राग न हो, कोई द्वेष न हो। श्वास इतना सीधा-सादा है कि इसके प्रति राग-द्वेष हो ही क्या सकता है।
एक श्वास ही ऐसा है जो जाने-अनजाने हमको संभालता है । हमारे जीवन का सबसे मूल्यवान तत्त्व है श्वास । यह सहज आलंबन है। इसे बाहर से लाना नहीं पड़ता । हम जब चाहें तब इसको आलंबन बना सकते हैं । उठते-बैठते, चलते-फिरते, रेल में या हवाई जहाज में सफर करते समय भी यह किया जा सकता है। यदि हमारा यह क्रम बन जाता है तो मन की भूमिका सुचारू रूप से संचालित हो सकती है। यह शिकायत मिट जाती है कि मन बहुत भटक रहा है। मन का भटकाव समाप्त हो जाता है । यह मन की पहली भूमिका है। अमन चैन की भूमिका
दूसरी भूमिका है अमन की। यह अमन-चैन की भूमिका है। केवल अमन-चैन । शब्द का ही ऐसा योग मिल गया-अमन के साथ चैन जुड़ गया। अमन की अवस्था चैन की अवस्था है । मन आलंबन के साथ चलता है । चलते-चलते जब वह आलंबन की एकाग्रता और स्थिरता के बिन्दु पर पहुंच जाता है तब मन की गति लड़खड़ाने लग जाती है, टूटने लग जाती है। मन वहां समाप्त हो जाता है, अमन की स्थिति प्राप्त हो जाती है।
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