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चित्त और मन
किया। इस निरोध की स्थिति में उसे इस सचाई का बोध हुआ कि इस संसार में एक ऐसा भी तत्त्व है जो तरंगातीत है, तरंगों से परे है। पार्शनिक दृष्टि
दार्शनिक दृष्टि से कहा जा सकता है कि संसार में तरंगातीत कुछ भी नहीं है । जिस आत्मा को हम तरंगातीत स्वीकार करते हैं, वह भी तरंगातीत नहीं है । इसे हम थोड़ा समझें । तरंगें दो प्रकार की होती हैं। पर्याय दो प्रकार के होते हैं— स्वभाविक पर्याय और वैभाविक पर्याय । एक वे पर्याय हैं, जो स्वभावतः प्रकट होते हैं। वे अनादि-अनन्त द्रव्य में प्रतिपल उत्पन्न होते रहते हैं और मिटते रहते हैं। स्वाभाविक तरंगें कभी समाप्त नहीं होती, उत्पन्न होती है और मिटती है। पर्याय हमारे लिए बाधक नहीं होते । हमें जिन पर्यायों और तरंगों से बाधित होना पड़ता है, जो हमारी मति में भ्रम पैदा करते हैं, वे हैं वैभाविक पर्याय । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि निमित्तों से उत्पन्न होने वाले पर्याय । इन वैभाविक पर्यायों को मिटाया जा सकता है। इनकी समाप्ति ही तरंगातीत अवस्था है। ध्यान की निष्पत्ति
यह नहीं मान लेना चाहिए कि ध्यान करने के लिए बैठते ही सारे पर्याय समाप्त हो जाते हैं, तरंगें समाप्त हो जाती हैं। ध्यान की स्थिति में अनेक पर्याय चलते हैं; तरंगें चलती हैं। ध्यान पर किए गए वैज्ञानिक प्रयोगों से यह पता लगा कि विश्राम की स्थिति में जो लक्षण पैदा होते हैं, वे ही लक्षण ध्यान की स्थिति में प्रकट होते हैं। हमारे शरीर में 'लेक्टिक' एसिड है। विश्राम काल में उसकी स्थिति कम होती है किन्तु ध्यान काल में नहीं होती । आठ घंटे के नींद के समय में जितनी मात्रा कम होती है, उतनी मात्रा ध्यान के बीस मिनट में हो जाती है। यह एसिड शरीर के लिए हानिकारक होता है । ध्यान में और भी अनेक परिवर्तन होते हैं किन्तु वह तरंगातीत स्थिति है, ऐसा नहीं मानना चाहिए। तरंगातीत अवस्था एक वीतराग की भी नहीं होती, केवली की भी नहीं होती। गौतम का प्रश्न
गौतम ने भगवान् से पूछा-भंते ! केवली ने जहां हाथ रखा, क्या वह वहां पुनः हाथ रख सकता है ?
महावीर ने कहा-नहीं रख सकता।
असीम ज्ञानी भी जब वैसा करने में असमर्थ है तो भला साधारण आदमी यह दावा कैसे कर सकता है कि वह वही कर रहा है, जो उसने पहले किया था।
गौतम ने फिर पूछा---यह कैसे, केवली दूसरी बार उसी आकाश
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