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________________ मन का विलय २२५ स्थितात्मा हो जाते हैं । इस स्थिति में राग-द्वेष नहीं सताते । क्षोभ और मोह नहीं सताते । आवेश और वासनाएं नहीं सतातीं। यह ज्ञान का स्थान है और वह वासना का स्थान है। अन्तर्मुखता हमारी एकाग्रता से हमें ज्ञान प्राप्त हुआ और ज्ञान के बाद हम सत्य में एकाग्र हो गए, एकाग्रता की स्थिति आ गई। हम उस धारा को नीचे नहीं ले जाते, उसे नीचे नहीं उतरने देते। नीचे उतरने नहीं देने का अर्थ ही है कि हमारी वृत्तियों में परिवर्तन आ गया है । इसे कहते हैं-अन्तर्मुखता । बहिमुखता की बात समाप्त होकर अन्तर्मुखता प्राप्त हो जाती है । उस स्थिति में इन्द्रियां बदल जाती हैं, मन बदल जाता है । जो इन्द्रियां किसी दूसरी ओर दौड़ रही थीं, वे अपने आप प्रत्याहृत अथवा प्रत्याहार की स्थिति में आ जाती हैं। मन जो बाहर की ओर जा रहा था, वह भी अन्तर्मुख हो जाता है, संयमित हो जाता है, प्रतिसंलीनता फलित हो जाती है। स्थितात्मा की स्थिति इसका अर्थ है अपने आप में लीन होना। जब प्रतिसंलीनता घटित होती है तब इन्द्रियां जो बाहर की ओर दौड़ रही थीं, वे अपने-आप में लीन हो जाती हैं। जो बच्चा घर से बाहर चला गया था, वह पुनः घर में आ जाता है । मन का पंछी जो बाहर की ओर जाना चाहता था, वह थककर पिजड़े में आकर बैठ जाता है। बाहर जाने की स्थिति समाप्त । उनका क्रम बदल जाता है । स्थितात्मा की स्थिति प्राप्त होती है । ज्ञान जब ज्ञान-केन्द्र में ही रहता है, ज्ञान की धारा जब ज्ञान केन्द्र में ही रहती है तब आदमी स्थितात्मा हो जाता है। वह इतना स्थिर बन जाता है कि कुछ भी करने को शेष नहीं रहता। स्थितात्मा ही दूसरों को स्थित बना सकता है । चल व्यक्ति किसी को स्थित नहीं बना सकता। एक तरंग है मन __ मन एक तरंग है। ध्यान की स्थिति में मन का सर्वथा विलय हो जाता है। इस स्थिति में मन अ-मन बन जाता है। यह स्थिति एक दिन नहीं, वर्ष भर रह सकती है। व्यक्ति एक वर्ष तक अ-मन की स्थिति में रह सकता है। मन को सर्वथा निष्क्रिय कर देना ही अ-मन की स्थिति है। तरंगों को रोका जा सकता है, तरंगों को समाप्त किया जा सकता है और इस स्थिति में ही मनुष्य को तरंगातीत बिन्दु का बोध संभव बन सकता है । पर्याय से परे जो मूल तत्त्व है उसको ज्ञात हुआ। जिस किसी व्यक्ति ने इस सिद्धान्त को समझकर तरंग के निरोध का अभ्यास किया उसने विचारों का निरोध, संवेदनों का निरोध, चंचलता का निरोध करने का प्रयत्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003056
Book TitleChitt aur Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size16 MB
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