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मन का विलय
जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं है, उसका लय या विलय कैसे होगा ? भाषा बहुत लचीली होती है। बहुत सारे व्यक्ति अपने भावों को अभिव्यक्ति देने के लिए भाषा का चाहे जैसे प्रयोग कर देते हैं । किसी ने कहा- हमने साधना की और मन का विलय हो गया । ध्यान किया और मन का विलय हो गया । मन शान्त हो गया, किसी रूप में विलीन हो गया । दूसरी भाषा यह है कि मन था ही नहीं । विलय हुआ किसका ? जिसका कोई अस्तित्व हो, उसका विलय हो सकता है । पर मन था कहां ? मन नहीं था। जैन, बौद्ध आदि जो साधना की धारणाएं हैं, उनकी भाषा है— मन का कोई अस्तिस्व ही नहीं है । मन का कोई आधार ही नहीं है, मन की कोई प्रतिष्ठा ही नहीं है और मन कहीं स्थित नहीं है ।
मन के विलय का अर्थ
हम यह कहें - चिंतन नहीं हो रहा है, विचार नहीं हो रहा है । हम सोच नहीं रहे हैं, कल्पना नहीं कर रहे हैं । यह भी कह सकते हैं कि मन मर गया, मन का अस्तित्व नहीं है । मन विलीन हो गया, मन का अस्तित्व नहीं है— इसमें भाषा का भेद हो सकता है। तात्पर्य में मुझे कोई भेद दिखाई नहीं देता । सच्चाई यह है— मन को उत्पन्न करने वाला यंत्र जब निष्क्रिय हो जाता है तब मन उत्पन्न ही नहीं होता । जब मन उत्पन्न नहीं होता तब हम कहते हैं कि मन का विलय हो गया। मन की अनुत्पत्ति की दशा, मन के जन्म न लेने की दशा, ठीक इसी भाषा में है मन का विलय हो जाना । मन का विलय हो गया, इसका तात्पर्य यही है कि मन का अस्तित्व नहीं रहा । मन उत्पन्न नहीं हुआ इसका तात्पर्य भी यही है—मन का अस्तित्व नहीं है । मूल बात तात्पर्य की है। तात्पर्य में हम जिसकी मीमांसा करते हैं, वह यह है कि एक ऐसी स्थिति आ सकती है, जहां मन नहीं रहता । हम यह मानकर न चलें कि मन रहता ही नहीं । यह स्थिति भी घटित होती है कि मन नहीं ही रहता । हमारे चेतना के स्तर पर दो स्थितियां निर्मित हो गईं— एक मन के होने की स्थिति और दूसरी मन के न होने की स्थिति । यह मन के न होने की स्थिति मनोविलय की स्थिति है और मन के होने की स्थिति वह है, जिसका सब लोग अनुभव करते हैं ।
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