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आत्मविज्ञान : मनोविज्ञान
२२१ विवेक की शक्ति जागे
ध्यान की प्रक्रिया खोज की प्रक्रिया है। व्यक्ति अपने आपको खोजता है, अपने भीतर में जाता है, गहराइयों में जाता है, परीक्षण करता है, निरीक्षण करता है, इस प्रक्रिया से वह सचाई तक पहुंच जाता है और तब विवेक जागृत हो जाता है।
प्रेक्षा का प्रयोजन है--विवेक । संश्लेष नहीं, विश्लेष । एकत्व नहीं, विवेचन।
__ जब तक विवेचन की शक्ति नहीं जागती, तब तक विकास नहीं होता। नमक भी सफेद होता है और कपूर भी सफेद होता है, पर दोनों का उपयोग भिन्न-भिन्न होता है। आचार्य भिक्षु ने कहा-कुछ लोग जो सफेद और तरल होता है उसे दूध समझ लेते हैं। गाय का दूध, भैंस का दूध, आक का दूध और थूहर का दूध-चारों प्रकार के दूध तरल होते हैं और सफेद होते हैं पर आदमी को यह विवेक होना चाहिए कि कौन-सा दूध किस काम में आ सकता है । यह विवेक की शक्ति जागृत होनी चाहिए। बहिरात्मा
हमें विवेक करना है कि चेतना कहां है और कर्म का प्रभाव कहाँ है ? हमें चेतना से कर्म का विश्लेषण करना है, विवेक करना है। दोनों का पृथक्करण करना है। विवेक की जागृति के पश्चात् हम जितना चेतना का अनुभव करेंगे, उतने ही वर्तमान में रहेंगे। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि चेतना का अनुभव करना वर्तमान की पकड़ है।।
जब हम बाहर ही बाहर देखते हैं तब बाहर के प्रति हमारी आसक्ति इतनी गाढ़ हो जाती है, इतनी तीव्र हो जाती है कि हमारी आत्मा 'बहिरात्मा' बन जाती है, अन्तरात्मा नहीं रहती। भीतर से हटकर केवल बाह्य बन जाती है । बाहर का आकार ले लेती है। फिर सारी प्रवृत्ति बाह्य को देखती है। सब कुछ बाहर ही बाहर, भीतर कुछ नहीं। बहिरात्मा का परिणमन होता है । हमारी आत्मा बहिरात्मा बन जाती है। अन्तरात्मा
जब किसी निमित्त से भीतर की यात्रा प्रारम्भ होती है और उस सचाई का एक कण, एक लव अनुभूति में आ जाता है कि सार सारा भीतर है, सुख भीतर है, आनन्द भीतर है, आनन्द का सागर भीतर लहरा रहा है, चैतन्य का विशाल समुद्र भीतर उछल रहा है, शक्ति का अजस्र स्रोत भी भीतर है, अपार आनन्द, अपार शक्ति, अपार सुख-यह सब भीतर है तब आत्मा अन्तरात्मा बन जाती है बाह्य आत्मा का वलय टूट जाता है। बाह्य अनुभूति के स्तर पर आत्मा बहिरात्मा बनती है तो आन्तरिक अनुभूति के स्तर पर
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