________________
आत्मविज्ञान : मनोविज्ञान
२१७
अवस्था प्राप्त हो गयी । यह है व्यवहार की भाषा का स्वीकार । किंतु जब हम कर्मशास्त्रीय भाषा में सोचते हैं, निश्चय की भाषा में सोचते हैं तब हमें कहना होगा कि आवेग चतुष्टय ( क्रोध, मान, माया, लोभ) की तीव्रतम अवस्था (अनन्तानुबंधी) का विलय होने पर सम्यक्दर्शन उपलब्ध होता है । जिस व्यक्ति में आवेग की यह तीव्रतम अवस्था क्षीण या उपशांत नहीं होती उसे सम्यक्दर्शन उपलब्ध नहीं होता, फिर चाहे वह कितनी ही बार नौ पदार्थों को रट जाये और उनको कंठस्थ कर उच्चारण करता रहे। जिस व्यक्ति में आवेग की दूसरी अवस्था ( अप्रत्याख्यानावरण) का उपशम या क्षय नहीं होता तब तक यथार्थ में व्यक्ति देश विरति श्रावक नहीं बन सकता, चाहे फिर वह कितनी ही बार त्याग को दोहराता रहे । जिस व्यक्ति में आवेग की तीसरी अवस्था ( प्रत्याख्यानावरण) का उपशम या क्षय नहीं होता तब तक वह मुनि साधक नहीं बन सकता, फिर चाहे वह कितनी ही बार दीक्षित क्यों न हो जाए । जिस व्यक्ति में आवेग की चौथी अवस्था ( संज्वलन ) का क्षय नहीं होता, तब तक व्यक्ति वीतराग नहीं बन सकता, वह चारित्र की उत्कृष्ट कोटि - यथाख्यात को नहीं पा सकता ।
कषाय विलय का महत्त्व
हम अन्तरंग और बहिरंग- दोनों पर ध्यान दें । केवल बहिरंग साधना पर्याप्त नहीं है । जब तक कषाय का विलय नहीं होगा, अन्तरंग का स्पर्श नहीं होगा तब तक आध्यात्मिक चेतना उपलब्ध नहीं होगी । बहिरंग साधना से व्यवहार की पूर्ति तो हो सकेगी किंतु आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं हो पायेगा ।
कर्मशास्त्र के रहस्यों को समझे बिना हम आध्यात्मिक विकास के सूक्ष्म रहस्यों को समझ नहीं सकते । उन सूक्ष्म रहस्यों को समझे बिना आध्यात्मिक. चेतना के अन्तरंग पथ को नहीं पकड़ सकते इसलिए हमें कर्मशास्त्र की गहराइयों में उतरकर उसके रहस्यों को पकड़ना होगा ।
छद्मरहित अवस्था
जब ये चारों आवेग - क्रोध, मान, माया, लोभ नष्ट हो जाते हैं, इनकी चारों अवस्थाएं क्षीण हो जाती हैं तब वीतरागता की स्थिति आती है, चारित्र यथाख्यात बन जाता है । इस अवस्था में किसी भी परिस्थिति में लक्ष्य के प्रति शैथिल्य नहीं आता, कथनी और नहीं रह जाता । कोई भी शक्ति उसमें अन्तर - कृत कष्ट प्राप्त हों, तिर्यंचकृत कष्ट प्राप्त हों, या जीने का प्रसंग आए, आकर्षक पदार्थों का पदार्थ पड़े हों, व्यक्ति की चेतना में कोई अन्तर
Jain Education International
करनी में तनिक भी अन्तर नहीं ला सकती । चाहे मनुष्य दैवी उपसर्ग प्राप्त हों, मरने या
अम्बार लगा हो या नीरस नहीं आता । वह आत्मा के
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org