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चित्त और मन
दोनों साधना-पथ के पथिक हैं । दोनों ने चलना शुरू किया है । वे उस यात्रा के लिए समर्पित हो चुके हैं । मोह विलय का सिद्धांत
एक व्यक्ति गृहस्थ जीवन में साधना करता है और एक व्यक्ति मुनि जीवन में साधना करता है। गृहस्थ जीवन से मुनि जीवन में आना कोई आकस्मिक घटना नहीं है, एक छलांग नहीं है। कहीं-कहीं, कभी-कभी आकस्मिक घटना भी घटित होती है, छलांग भी लगती है। हमारे विकास के क्रम में भी छलांगें होती हैं। विकास के एक क्रम में चलते-चलते ऐसी छलांग आती है कि व्यक्ति को नयी उपलब्धि प्राप्त हो जाती है, नया प्रजनन हो जाता है, नया घटित हो जाता है। यह छलांग है। किन्तु गहस्थ जीवन से मुनि जीवन में आ जाना कोई छलांग नहीं है । इसमें निश्चित क्रम की व्यवस्था है। कोई गृहस्थ होकर साधना का प्रारम्भ करता है और कोई मुनि बनकर साधना की यात्रा पर चलता है। इसके पीछे भी मोह के आवेगों का सिद्धान्त काम करता है । जिस व्यक्ति के मोह का कुछ विलय हुआ है उस व्यक्ति के मन में एक निश्चित मात्रा में साधना का भाव जागृत होता है। जिस व्यक्ति के मोह का अधिक विलय हुआ है, उस व्यक्ति के मन में साधना के प्रति समर्पित हो जाने की बात प्राप्त होती है। व्यावहारिक कपना
मुनित्व और श्रावकत्व की हमारी व्यावहारिक कल्पना है । सम्यक् दर्शन की भी एक व्यावहारिक कल्पना है । जहां संघ और समाज होता है, संगठन होता है, वहां व्यवहार भी चलता है । किन्तु व्यवहार व्यवहार होता है, उसमें वास्तविकता बहुत कम होती है। निश्चय वास्तविक होता है। निश्चय सत्य की उपलब्धि निश्चय के द्वारा होती है । निश्चय को हम छोड़ दें और केवल व्यवहार पर चलें तो जो सत्य उपलब्ध होना चाहिए वह उपलब्ध नही होता।
अनेकांत दर्शन के दो पक्ष हैं-व्यवहार और निश्चय । अनेकांत का पंछी निश्चय और व्यवहार-इन दोनों पंखों को फड़फड़ाकर उड़ता है। एक पंख से वह उड़ नहीं पाता। उसका एक पंख काटा नहीं जा सकता, न व्यवहार को काटा जा सकता है और न निश्चय को काटा जा सकता है । व्यवहार से आगे
___ जब हम व्यवहार की भाषा में चलते हैं तब जीव आदि नौ पदार्थों को जानना सम्यक् दर्शन माना जाता है । श्रावक के व्रतों को स्वीकार कर लिया, यह हो गया पांचवां गुणस्थान अर्थात् श्रावकत्व, देशविरति की प्राप्ति । पांच महावतों को स्वीकार कर लिया, छठा गुणस्थान आ गया, सर्वविरति की
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