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आत्मविज्ञान : मनोविज्ञान
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मनन को विकृत कर देती है, चितन-मनन विपर्यस्त हो जाता है । जब उस भावेग की तीव्रता कम होती है, उसका परिशोधन होता है, उसका तनुभाव होता है, वह क्षीण होता है तब दूसरी अवस्था (अप्रत्याख्यान) प्राप्त होती है। सत्य की भूमिका
अनन्तानुबंधी अवस्था का विलय होते ही दृष्टिकोण सम्यक हो जाता है। यह आध्यात्मिक चेतना के विकास की भूमिका है । कर्मशास्त्र की भाषा में इस भूमिका का नाम है-सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान। यह सत्य को जानने की भूमिका है। इसमें अतत्त्व की बुद्धि नहीं रहती। असत्य में सत्य का भाव नहीं रहता । व्यक्ति जो जैसा है, वैसा जानने लग जाता है। उसकी दृष्टि सम्यक हो जाती है, सत्य उपलब्ध हो जाता है।
जब पहला आवेग टूटता है तब भेदज्ञान की उपलब्धि होती है । मैं शरीर से भिन्न हूं, मैं शरीर नहीं हूं--यह बोध स्पष्ट हो जाता है । मैं शरीर हूं -- यह अस्मिता है । अस्मिता एक क्लेश है । भेदज्ञान होते ही अस्मिता मिट जाती है, क्लेश मिट जाता है । इसके मिटते ही दूसरा संस्कार निर्मित हो जाता है । 'मैं शरीर नहीं हूं', मैं शरीर से भिन्न हूं' यह भी एक संस्कार है। यह प्रतिप्रसव है अर्थात् उस संस्कार को मिटाने वाला संस्कार है। शरीर के साथ अभेदानुभूति, 'अहमेव देहोऽस्मि' का जो भाव है, मैं शरीर हूं, मैं देह हूं- यह जो भाव है, यह मिथ्या दृष्टिकोण है । यह समाप्त हो जाता है । इसे समाप्त करने लिए दूसरे संस्कार का निर्माण करना होता है । 'मैं शरीर नहीं हूंयह प्रतिप्रसव है, प्रतिपक्ष का संस्कार है । आध्यात्मिक विकास : पांचवी भूमिका
___ जैसे ही आवेग की दूसरी अवस्था (अप्रत्याख्यानावरण) उपशांत या क्षीण होती है तब उस रास्ते पर चलने की भावना निर्मित हो जाती है । मन में भावना होती है कि विरति का, त्याग का रास्ता अच्छा है, प्यास बुझाने वाला है, इस पर अवश्य चलना चाहिए । कर्मशास्त्र की भाषा में देश विरति गुणस्थान उपलब्ध हो जाता है । यह आध्यात्मिक विकास की पांचवीं भूमिका
आध्यात्मिक विकास के क्रम में जब हम आगे बढ़ते हैं, अभ्यास करतेकरते जैसे मोह का वलय टूटता जाता है, उसका प्रभाव मंद हो जाता है तब तीसरी ग्रन्थि खुलती है। इस ग्रन्थि का नाम है प्रत्याख्यानावरण । यह आवेग की तीसरी अवस्था है। इसके टूटने से विरति के प्रति व्यक्ति पूर्ण समपति हो जाता है । यह आध्यात्मिक विकास की छठी भूमिका है। इस भूमिका में व्यक्ति साधु बन जाता है, संन्यासी बन जाता है। पांचवी भूमिका गृहस्थ साधकों की है और छठी भूमिका मुनि-साधकों की है । दोनों साधना के इच्छुक हैं,
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