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________________ २१४ चित्त और मन को और तीसरी मूर्छा चौथी मूर्छा को उत्पन्न करती चली जाती है। इसका कहीं अंत नहीं आता। सम्यक् देखने का हमें अवसर ही नहीं मिलता। एक के बाद दूसरी गलती, गलतियों को दोहराते चले जाते हैं और दृष्टि में भ्रम छाया का छाया रहता है । यह प्रखरतम आवेग हमारी दृष्टि को विकृत करता है। मनोविज्ञान को भाषा यह ग्रंथिपात का क्रम है । मनोविज्ञान की भाषा में कहा जाता हैजब आवेग प्रबल होता है तब ग्रंथिपात होता है। यह आवेग आने के बाद जाता नहीं । जब क्रोध अनन्तानुबंधी की कोटि का होता है तब वह सहजता से नहीं जाता । वह चट्टान की दरार जैसे होता है । चट्टान में दरार पड़ गयी, वह फिर मिटती नहीं। अमिट बन जाती है । एक रेखा बालू पर खींची जाती है और एक रेखा पानी पर खींची जाती है। पानी की रेखा तत्काल मिट जाती है, मिट्टी की रेखा कठिनाई से मिटती है फिर भी वह चट्टान की दरार की भांति कठिन नहीं होती। आवेग की भी ये चार स्थितियां, अवस्थाएं होती हैं-तीव्रतम, तीव्रतर, मंद और मंदतर । कर्मशास्त्र की भाषा कर्मशास्त्र की भाषा में इनके चार नाम हैंतीव्रतम-अनन्तानुबंधी तीव्रतर-अप्रत्याख्यानी मंद-प्रत्याख्यानी मंदतर-संज्वलन। प्रथम कोटि का आवेग दृढ़तम होता है । उस स्थिति में राग-द्वेष की गांठ इतनी कठोर होती है कि सम्यकदृष्टि प्राप्त नहीं होती, सत्य को सत्य के रूप में स्वीकार करने की तैयारी नहीं होती। उसके उदय से भौतिक जीवन इतना मूर्छामय, इतना प्रगाढ़ निद्रामय हो जाता है कि व्यक्ति सत्य को देखने का प्रयत्न ही नहीं करता, जागृति के बिन्दु पर पहुंचने का प्रयत्न ही नहीं कर पाता । जीवन में केवल मूर्छा ही मूर्छा व्याप्त रहती है। दृष्टि मूच्छित रहती है । यथार्थ हाथ नहीं लगता । निदियाई आंखों से आदमी ठीक देख नहीं पाता, नशे में आदमी देख नहीं पाता, उसे यथार्थ का बोध नहीं होता क्योंकि वह मत्त होता है, सुप्त होता है। जब तक आवेग की यह अवस्था बनी रहती है, राग-द्वेष की तीव्र ग्रंथि होती है तब तक सत्य का दर्शन नहीं होता । सम्यक् दर्शन उसे प्राप्त नहीं होता । वह मिथ्या-दृष्टि होता है। उसका दर्शन मिथ्या होता है । तत्त्व का विपर्यय होता है । जीवन में सारा विपर्यय होता है। इस तीव्र आवेग की ऐसी रासायनिक प्रक्रिया होती है कि वह व्यक्ति के चिंतन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003056
Book TitleChitt aur Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size16 MB
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