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आत्मविज्ञान : मनोविज्ञान
दष्टिकोण सम्यक् होगा फिर आचार सम्यक् होगा । मूल है राग और द्वेष
मोह का मूल है - राग और द्वेष । राग और द्वेष के द्वारा एक चक्र चल रहा है । वह चक्र है आवेग और उप- आवेग का । राग और द्वेष है इसीलिए क्रोध, मान, माया और लोभ - ये चार मूल आवेग उत्पन्न होते हैं । राग और द्वेष है इसीलिए हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा (घृणा), काम-वासना- - ये सारे उप-आवेग उत्पन्न होते हैं । इन सबके मूल में राग और द्वेष हैं । आवेगों की पृष्ठभूमि में ये दो अनुभूतियां काम करती हैं । जब तक ये अनुभूतियां हैं तब तक आवेग और उप-आवेग की उत्पत्ति को नहीं रोका जा सकता। यह चक्र घूमता रहता है । कभी कोई आवेग उत्पन्न हो जाता है तो कभी कोई आवेग । यह सच है कि परिस्थितियां भी इनकी उत्पत्ति में निमित्त बनती हैं, वातावरण भी निमित्त बनता है ।
आवेग की तरतमता
आवेगों की तरतमता आध्यात्मिक चेतना के विकास का बोधचक्र है । कषाय- चतुष्टयी - क्रोध, मान, माया और लोभ के तारतम्य का पहला प्रकार है— अनन्तानुबंधी । अनन्तानुबंधी अनन्त अनुबंध करता है । इतनी संतति पैदा करता है कि जिसका अंत नहीं होता । संतति के बाद संतति । यह क्रम टूटता ही नहीं या मुश्किल से टूटता है । जिस आवेग में संतति की निरंतरता होती है या जिसमें संतति को पैदा करने की अटूट क्षमता होती है, वह अनंतानुबंधी होता है । कभी कभी ऐसा होता है कि एक घटना घटती है । उसका असर होता है और बात समाप्त हो जाती है । कभी ऐसा भी होता है कि घटना घटित हुई, मन में विचार आया और उस विचार का सिलसिला इतना लम्बा हो गया कि उस मूल विचार से अनेक-अनेक छोटेबड़े विचार उत्पन्न होते चले गये। एक के बाद एक विचार आते रहे । उनकी श्रृंखला नहीं टूटी । वह पहला विचार इतनी बड़ी संतति पैदा करता है कि उसका चक्र कभी समाप्त ही नहीं होता । यह अनन्तानुबंधी है ।
बहुत सारे कीटाणु ऐसे होते हैं, जिनकी संतति इतनी बढ़ जाती है कि जाल फैल जाता है । वह जाल बहुत बड़ा होता है । वे कीटाणु संतति पैदा करते ही चले जाते हैं । कहीं रुकते ही नहीं ।
- आवेग की संतति का परिणाम
इसी प्रकार जिस आवेग की संतति आगे से आगे बढ़ती चली जाती है, वह तीव्रतम आवेग हमारे दृष्टिकोण को प्रभावित करता है । जब तक वह आवेग होता है तब तक दृष्टिकोण सम्यक् नहीं होता सघन होती है कि एक मूर्च्छा दूसरी मूर्च्छा को, दूसरी
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क्योंकि मूर्च्छा इतनी मूर्च्छा तीसरी मूर्च्छा
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