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________________ २१२ चित्त और मन 1 में परिवर्तन होता है । इन सारी बातों बात और जोड़ दें कर्मशास्त्र की । आवेगों के कारण बहुत होती हैं। इसके साथ एक बात पहले जोड़ दें और एक बात पीछे भय- वेदनीय-मोह के कारण भय उत्पन्न होता है । उस व्यक्ति में ऐसे परमाणु संचित हैं, जो किसी निमित्त का सहारा पाकर उत्पन्न हो जाते हैं यह पहले जोड़ने वाली बात है । एक बात बाद में जोड़ें। जो डरता है, जो भयभीत है, वह भय के कारण केवल शारीरिक या मानसिक परिवर्तन ही नहीं करता किंतु दूसरे परमाणुओं का संग्रह भी करने लग जाता है और इतने परमाणु संगृहीत कर लेता है, जो मोह को और अधिक पोषण देते हैं । । के साथ एक सारी बातें जोड़ दें । कर्मशास्त्र : आवेग कर्मशास्त्र में मोहनीय कर्म के चार आवेग माने हैं— क्रोध, मान, माया और लोभ । इन्हें 'कषाय-चतुष्टयी' कहा जाता है । ये चार मुख्य आवेग हैं । कुछ उप-आवेग हैं । उनकी संख्या सात या नौ है । हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा और वेद - ये सात या वेद को स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद में हम विभक्त करें तो उप-आवेग नौ हो जाते हैं । इन्हें 'नौ-कषाय' कहा जाता है । ये पूरे कषाय नहीं हैं । कषायों के कारण होने वाले 'नौ-कषाय " हैं, मूल आवेगों के कारण होने वाले उप-आवेग हैं | मिश्रित आवेग ईर्ष्या करना, आदर देना आदि-आदि आवेग हैं या नहीं - यह प्रश्न होता है । कर्मशास्त्र में भी ये आवेग के रूप में स्वीकृत नहीं हैं। मानसशास्त्र में भी ये आवेग नहीं माने गये हैं । मानसशास्त्रीय परिभाषा के अनुसार ईर्ष्या आदि मूल आवेग नहीं हैं । ये सम्मिश्रण हैं, मिश्रित आवेग हैं । इनमें अनेक आवेगों का एक साथ मिश्रण हो जाता है । ये मूल नहीं हैं । कर्म-शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार भी ये मिश्रित हैं, मूल नहीं हैं । उसके अनुसार मूल आवेग चार और उप-आवेग सात या नौ हैं । आचार और दृष्टिकोण उप - आवेग क्रोध, मान, माया और लोभ जैसे तीव्र नहीं है । इनमें भी बहुत तारतम्य है । यह मोह-परिवार ही हमारी दृष्टि को प्रभावित करता है, चारित्र को प्रभावित करता है । जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि । जैसा दृष्टिकोण, वैसा आचार | आचार और दृष्टिकोण का गहरा संबंध है । दृष्टिकोण विकृत होता है तो आचार विकृत होता है । दृष्टिकोण सम्यक् होता है। तो आचार सम्यक् होता है । उसके सम्यक् होने की अधिक संभावना होती है । ऐसा तो नहीं है कि दृष्टिकोण के सम्यक् होने के साथ ही साथ सारा का सारा आचार सम्यक् हो जाए । आचार का क्रमिक विकास होता है । पहले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003056
Book TitleChitt aur Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size16 MB
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