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आत्मविज्ञान : मनोविज्ञान
जैन मनोविज्ञान : आधार
जैन मनोविज्ञान आत्मा, कर्म, और नो-कर्म की त्रिपुटी-मूलक है। मन की व्याख्या और प्रवृत्तियों पर विचार करने से पूर्व इस त्रिपुटी पर संक्षिप्त विचार करना होगा; क्योंकि जैन-दृष्टि के अनुसार मन स्वतंत्र पदार्थ न्या गुण नहीं, वह आत्मा का ही एक विशेष गुण है। मन की प्रवृत्ति भी स्वतंत्र नहीं, वह कर्म और नो-कर्म की स्थिति-सापेक्ष है इसलिए इनका स्वरूप समझे बिना मन का स्वरूप नहीं समझा जा सकता । त्रिपुटी का स्वरूप : आत्मा
चैतन्य-लक्षण, चैतन्य-स्वरूप या चैतन्य-गुण पदार्थ का नाम आत्मा है । ऐसी आत्माएं अनन्त हैं। उनकी सत्ता स्वतंत्र है। वे किसी दूसरी आत्मा या परमात्मा के अंश नहीं हैं। प्रत्येक आत्मा की चेतना अनन्त होती हैअनन्त प्रमेयों को जानने में क्षम होती है । चैतन्य-स्वरूप की दृष्टि से सब आत्माएं समान होती हैं किन्तु चेतना का विकास सब में समान नहीं होता। चंतन्य-विकास के तारतम्य का निमित्त कर्म है। कर्म
आत्मा की प्रवृत्ति द्वारा आकृष्ट और उसके साथ एक-रसीभूत पुद्गल "कर्म' कहलाते हैं। कर्म आत्मा के निमित्त से होने वाला पुद्गल-परिणाम है। भोजन, औषध, विष और मद्य आदि पोद्गलिक पदार्थ परिपाक-दशा में प्राणियों पर प्रभाव डालते हैं, वैसे ही कर्म भी परिपाक-दशा में प्राणियों को प्रभावित करते हैं। भोजन आदि का परमाणु-प्रचय स्थूल होता है इसलिए उनकी शक्ति स्वल्प होती है। कर्म का परमाणु-प्रचय सूक्ष्म होता है इसलिए उसका सामर्थ्य अधिक होता है। भोजन आदि के ग्रहण की प्रवृत्ति स्थूल होती है इसलिए उसका स्पष्ट ज्ञान हो जाता है । कर्म-ग्रहण की प्रवृत्ति सूक्ष्म होती है इसलिए इसका स्पष्ट ज्ञान नहीं होता। भोजन आदि के परिणामों को जानने के लिए शरीरशास्त्र है, कर्म के परिणामों को समझने के लिए कर्मशास्त्र । भोजन आदि का प्रत्यक्ष प्रभाव शरीर पर होता है और परोक्ष प्रभाव आत्मा पर । कर्म का प्रत्यक्ष प्रभाव आत्मा पर होता है और परोक्ष प्रभाव शरीर पर । पथ्य भोजन से शरीर का उपचय होता है, अपथ्य भोजन से अपचय । दोनों प्रकार का भोजन न होने से मृत्यु । ऐसे ही पुण्य कर्म से
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