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मर्मशास्त्र और मनोविज्ञान
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परिवर्तन घटित हो सकता है । प्रेक्षा और अनुप्रेक्षा, ये दोनों भाव हैं । हम इनके प्रयोग से विधायक भावों का प्रयोग कर निषेधात्मक भावों को समाप्त कर सकते हैं । इससे कर्म का वलय टूटता है, छिन्न-भिन्न होता है ।
शरीर के साथ काम करने वाली चेतना स्थूल होती है । इस चेतना को पार कर जब हम भीतर जाते हैं तब विद्युत् शरीर के साथ संपर्क होता है । यह सूक्ष्म शरीर है । इसके द्वारा हमारा स्थूल शरीर संचालित होता है । उसको पार कर जब हम और गहरे में जाते हैं, तब हमारा संपर्क होता है सूक्ष्मतर शरीर से । वह है कर्म शरीर । यह चेतना हमारे आचार, व्यवहार और विचार का संचालन करती है । ध्यान का प्रयोजन है कर्मशरीर के साथ काम करने वाली चेतना तक पहुंच जाना और उन कर्म परमाणुओं को समझ लेना, जो सारी घटनाओं के लिए जिम्मेवार हैं । उनको समझ लेना ही पर्याप्त नहीं है, उनका क्षय करना भी जरूरी है । इस बिंदु तक पहुंच कर ही हम कर्मवाद को समझ सकते हैं, मनोविज्ञान को समझ सकते हैं ।
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