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कर्मशास्त्र और मनोविज्ञान
१६६ है-एक प्रकार की चित्तवृत्ति । जिसमें चेतन और अचेतन-दोनों मनों का योग होता है, कॉन्शस माइंड और सब-कॉन्शस माइंड-दोनों का योग होता है, उसे संज्ञा या संज्ञान कहते हैं।
ज्ञान ज्ञानावरण के विलय से होता है। ज्ञान की दृष्टि से जीव विज्ञ कहलाता है । संज्ञा दस या सोलह हैं। वे कर्मों के सन्निपात-सम्मिश्रण से बनती हैं। इनमें कई संज्ञाएं ज्ञानात्मक भी हैं, फिर भी वे प्रवृत्ति-संवलित हैं इसलिए शुद्ध ज्ञान-रूप नहीं हैं। संज्ञा के प्रकार
संज्ञा के दस प्रकार हैं१. आहार
६. मान २. भय
७. माया ३. मैथुन
८. लोभ ४. परिग्रह
६. ओघ ५. क्रोध
१०. लोक संज्ञा की दृष्टि से जीव 'वेद' कहलाता है। इनके अतिरिक्त तीन संज्ञाएं और हैं
१. हेतुवादोपदेशिकी २. दीर्घकालिकी
३. सम्यग्-दृष्टि
ये तीनों ज्ञानात्मक हैं। कर्म को समझे
संज्ञा का स्वरूप समझने से पहले कर्म का कार्य समझना उपयोगी होगा। संज्ञाएं आत्मा और मन की प्रवृत्तियां हैं । वे कर्म द्वारा प्रभावित होती हैं। कर्म आठ हैं। उन सबमें 'मोह' प्रधान है। उसके दो कार्य हैं-तत्त्वदृष्टि या श्रद्धा को विकृत करना और चरित्र को विकृत करना । दृष्टि को विकृत बनाने वाले पुद्गल 'दृष्टि-मोह' और चरित्र को विकृत बनाने वाले पुद्गल 'चारित्र मोह' कहलाते हैं। चारित्र-मोह के द्वारा प्राणी में विविध मनोवृत्तियां बनती हैं, जैसे-भय, घृणा, हंसी,सुख, कामना, संग्रह, झगड़ालूपन, भोगासक्ति, यौन-संबंध आदि-आदि। आज का मनोविज्ञान इन्हें स्वाभाविक मनोवृत्तियां कहता है। विकृत करता है मोह
मनुष्य में तीन एषणाएं हैंमैं जीवित रहूं। धन बढ़े ।
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