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________________ १६८ चित्त और मन की जा सकती है। मोहनीय कर्म के विपाक मूल संवेग १. भय भय . २. क्रोध क्रोध ३. जुगुप्सा जुगुप्सा भाव, विकर्षण भाव ४. स्त्री वेद ५. पुरुष वेद कामुकता ६. नपुंसक वेद ७. अभिमान स्वाग्रह भाव, उत्कर्ष भावना ८. लोभ स्वामित्व भावना, अधिकार भावना ६. रति उल्लसित भाव १०. अरति दुःख भाव मनोविज्ञान का सिद्धांत है कि संवेग के उद्दीपन से व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन आ जाता है। कर्मशास्त्र के अनुसार मोहनीय कर्म के विपाक से व्यक्ति का चरित्र और व्यवहार बदलता रहता है ।। जटिल है मनुष्य को व्याख्या प्राणी जगत् की व्याख्या करना सबसे जटिल है । अविकसित प्राणियों की व्याख्या करने में कुछ सरलता हो सकती है। मनुष्य की व्याख्या सबसे जटिल है । वह सबसे विकसित प्राणी है । उसका नाड़ी-संस्थान सबसे अधिक विकसित है। उसमें क्षमताओं के अवतरण की सबसे अधिक संभावनाएं हैं इसलिए उसकी व्याख्या करना सर्वाधिक दुरूह कार्य है। कर्मशास्त्र, योगशास्त्र, मानसशास्त्र (साइकोलॉजी), शरीरशास्त्र (एनाटोमी) और शरीरक्रियाशास्त्र (फिजियोलॉजी) के तुलनात्मक अध्ययन से ही उसको कुछ सरल बनाया जा सकता है। मानसिक परिवर्तन केवल उद्दीपन और परिवेश के कारण ही नहीं होते । उनमें नाड़ी-संस्थान, जैविक विद्युत्, जैविक रसायन और अन्तःस्रावी ग्रंथियों के स्राव का भी योग होता है । ये सब हमारे स्थूल शरीर के अवयव हैं। इनके पीछे सूक्ष्म शरीर क्रियाशील होता है और उनमें निरन्तर होने वाले कर्म के स्पंदन परिणमन या परिवर्तन की प्रक्रिया को चालू रखते हैं। परिवर्तन की इस प्रक्रिया में कर्म के स्पन्दन, मन की चंचलता, शरीर के संस्थान-ये सभी सहभागी होते हैं । संज्ञा हमारे जितने आचरण हैं, उनके पीछे हमारी दस प्रकार की चेतना काम करती है, दस प्रकार की चित्त वृत्तियां काम करती हैं। संज्ञा का अर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003056
Book TitleChitt aur Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size16 MB
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