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कर्मशास्त्र और मनोविज्ञान
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मनोविज्ञान के क्षेत्र में जीवन और जीव का भेद अभी स्पष्ट नहीं है । इसलिए सारे प्रश्नों के उत्तर जीवन के सन्दर्भ में ही खोजे जा सकते हैं। कर्मशास्त्रीय अध्ययन में जीव और जीवन का भेद बहुत स्पष्ट है इसलिए मानवीय विलक्षणता के कुछ प्रश्नों के उत्तर जीवन में खोजे जाते हैं और कुछ प्रश्नों का उत्तर जीव में खोजा जाता है। आनुवंशिकता का सम्बन्ध जीवन से है, वैसे ही कर्म का सम्बन्ध जीव से है। उसमें अनेक जन्म के कर्म या प्रतिक्रियाएं संचित होती हैं इसलिए वैयक्तिक योग्यता या विलक्षणता का आधार केवल जीवन के आदि-बिन्दु में ही नहीं खोजा जाता, उससे परे भी खोजा जाता है, जीव के साथ प्रवहमान कर्म-संचय (कर्मशरीर) में भी खोजा जाता
मूल संवेग
मूल प्रवृत्तियां : संवेग
कर्म का मूल मोहनीय कर्म है । मोह के परमाणु जीव में मूर्छा उत्पन्न करते हैं। दृष्टिकोण मूच्छित होता है और चरित्र भी मूच्छित हो जाता है। व्यक्ति के दृष्टिकोण चरित्र और व्यवहार की व्याख्या इस मूर्छा की तरतमता के आधार पर ही की जा सकती है। मेक्डूगल के अनुसार व्यक्ति में चौदह मूल प्रवृत्तियां और उतने ही मूल संवेग होते हैंमूल प्रवृत्तियां १. पलायनवृत्ति
भय २. संघर्षवृत्ति
क्रोध ३. जिज्ञासावृत्ति
कुतूहल भाव ४. आहारान्वेषणवृत्ति ५. पित्रीयवृत्ति
वात्सल्य, सुकुमार भावना ६. यूथवृत्ति
एकाकीपन तथा सामूहिकता का भाव ७. विकर्षणवृत्ति
जुगुप्सा भाव, विकर्षण भाव ८. कामवृत्ति
कामुकता ६. स्वाग्रहवृत्ति
स्वाग्रह भाव, उत्कर्ष भावना १०. आत्मलघुतावृत्ति हीनता भाव ११. उपार्जनवृत्ति
स्वामित्व भावना, अधिकार भावना १२. रचनावृत्ति
सृजन भावना १३. याचनावृत्ति
दुःख भवि १४. हास्यवृत्ति
उल्लसित भाव कर्म विपाक : मूल संवेग
कर्मशास्त्र के अनुसार मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियां हैं और उसके अट्ठाईस ही विपाक हैं । मूल प्रवृत्तियों और मूल संवेगों के साथ इनकी तुलना
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