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आत्मज्ञान और वैराग्य
वैराग्य ज्ञानयोग का ही प्रकार है । आत्मज्ञान की निर्मलता वैराग्य का रूप ले लेती है । कोई भी आदमी ऐसा नहीं हो सकता, जो आत्मज्ञानी नहीं है और विरक्त है । ऐसा भी कोई आदमी नहीं हो सकता है जो विरक्त नहीं है और आत्मज्ञानी है । जो आत्मज्ञानी होगा, वह विरक्त होगा और जो विरक्त होगा, वह आत्मज्ञानी होगा, यह निश्चित व्याप्ति है ।
आत्मज्ञान के दो हेतु हैं - निसर्ग और अधिगम । कुछ लोग निसर्ग से ही आत्मज्ञानी होते हैं । अधिगम का अर्थ है गुरु का उपदेश । गुरु के उपदेश से आत्मज्ञान प्राप्त करने वाले नैसर्गिक आत्मज्ञानी की अपेक्षा अधिक होते हैं । नैसर्गिक आत्मज्ञानी ज्ञान के द्वारा मानसिक एकाग्रता प्राप्त करते हैं किंतु गुरु के उपदेश से आत्मज्ञान की दिशा में चलने वाले श्रद्धा के प्रकर्ष से मानसिक एकाग्रता साध लेते हैं । श्रद्धा के प्रकर्ष में विश्वास केन्द्रित हो जाता है और - मन की तरलता सघनता में बदल जाती है ।
चित्त और मन
-शरीर की शिथिलता
ज्ञान और वैराग्य चैतन्य की स्वाभाविक क्रियाएं हैं। श्रद्धा का प्रकर्ष प्रेरणा से प्राप्त क्रिया है । मन की एकाग्रता केवल इन्हीं से नहीं होती है । वह शरीरसंयम से भी हो सकती है । शरीर की चंचलता मन की चंचलता है, - शरीर की स्थिरता मन की स्थिरता है । शरीर की स्थिरता शिथिलीकरण के द्वारा प्राप्त होती है ।
शरीर की शिथिलता संकल्प और श्वास - संयम पर निर्भर है । कहा गया - पद्मासन या सुखासन में बैठकर शरीर को ढीला छोड़ दीजिए और शरीर की शिथिलता का संकल्प कीजिए । शरीर शिथिल हो रहा है, ऐसा अनुभव कीजिए । अनुभव जितना तीव्र होगा, उतनी ही अधिक सफलता प्राप्त होगी ।
श्वास संयम
संकल्प की साधना के पश्चात् श्वास-संयम का अभ्यास कीजिए । श्वाससंयम से अभिप्राय प्राण को सूक्ष्म करने से है । हम जो श्वास लेते हैं, वह स्थूल प्राण है । श्वास लेने की जो शक्ति ( श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति) है, वह सूक्ष्म प्राण है । नाभि और नासाग्र पर दो-चार क्षण के लिए मन को एकाग्र कीजिए । सहज ही श्वास- संयम हो जाएगा । श्वास की मन्दता या सूक्ष्मता से शरीर की क्रियाएं सूक्ष्म हो जाती हैं और शिथिलीकरण संध जाता है । शरीर की स्थिरता और श्वास की स्थिरता होने पर मन का निरोध सहज सरल हो जाता है ।
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