________________
मन का अनुशासन
१६६
विकास होता है और अन्यान्य प्राणियों की अपेक्षा बहुत विकास होता है । मन विकास की भूमिका का प्रतीक है । वह शत्रु नहीं है । उसका उपयोग करना चाहिए । यह एक कीमती घोड़ा है । यह बहुत लाभप्रद होता है यदि इसकी लगाम को समझ लिया जाए। लगाम है श्रुतज्ञान | आदमी में ज्ञान नहीं होता है तो मन उसे सताने लग जाता है । जब आदमी में ज्ञान होता है। तब मन उसके लिए साधक बन जाता है, उपयोगी बन जाता है, सताने वाली बात समाप्त हो जाती है ।
आवश्यक है श्रुतज्ञान
ज्ञान बहुत जरूरी है । जाने बिना बात पूरी नहीं बनती । ज्ञान नहीं है तो मन को कैसे वश में किया जा सकेगा ? मन को एकाग्र किया जा सकता है, उसकी चंचलता को नहीं मिटाया जा सकता । एकाग्र का मतलब अचंचल नहीं है । इसका अर्थ है - वह एक विषय पर चंचल बना हुआ है, केवल एक विषय पर काम कर रहा है ।
एकाग्रता का प्रतिपक्षी है-विक्षेप । इसका अर्थ है-मन भटकता रहता है, एक विषय पर नहीं टिकता । मन को एक स्थान पर टिकाने का साधन है --- श्रुतज्ञान । यह एक ऐसी लगाम है जिसके सहारे मन को जहां चाहें वहां टिका दें। चाहें तो मन को अंगुली के सिरे पर टिका दें या अंगूठे के सिरे पर टिका दें। चाहें तो उसको ज्योतिकेन्द्र पर टिका दें और चाहें तो उसे तेजस केन्द्र पर टिका दें। यह शक्ति आती है अभ्यास के द्वारा । इसके लिए श्रुतज्ञान बहुत आवश्यक है, बड़ा आलंबन है ।
मनोनिरोध : वैराग्य
ज्ञान का अर्थ सब कुछ जानना नहीं है किन्तु अपने अस्तित्व की तीव्र अनुभूति है । वैराग्य उसका परिणाम है । अपने अस्तित्व के प्रति अनुराग होने का नाम ही विराग है । जब तक अपने अस्तित्व का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता; तब तक बाह्य वस्तुओं के प्रति मन में तृष्णा रहती है । उसके द्वारा उनके प्रति अनुराग उत्पन्न होता है । आत्मानुभूति होने पर यह स्थिति उलट जाती है । अनुराग वस्तुओं से हटकर अपने प्रति हो जाता है। इसका अर्थ है कि पदार्थ के प्रति विराग हो जाता है ।
संकल्प, विकल्प और इच्छा -- ये सब मन के कार्य हैं । बाह्य बस्तुओं के प्रति जितनी कल्पना और इच्छा होती है, मन उतना ही चंचल रहता है । मन की गति को आत्मा की ओर मोड़ देने पर उसकी कल्पना और इच्छा. शक्ति क्षीण हो जाती है । इसी को हम कहते हैं वैराग्य के द्वारा मन का निरोध ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org