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________________ २८८ चित्त और मन इस संवाद में मन को स्थिर करने का जो उपाय बताया गया है, वह ज्ञानयोग है। यह मन के अनुशासन का प्रथम हेतु है। मन अचंचल बनता है ? एक प्रश्न है—क्या मन को अचंचल बनाया जा सकता है ? कहा गया- मन को कभी अचंचल नहीं बनाया जा सकता। यह असंभव बात है। मन का अर्थ है-प्रवृत्ति । जीवन की तीन प्रवृत्तियां हैं-शरीर की प्रवृत्ति, वाणी की प्रवृत्ति और मन की प्रवृत्ति । इन तीनों प्रवृत्तियों को स्थिर कैसे किया जा मकता है ? शरीर को फिर भी स्थिर किया जा सकता है, मौन कर वाणी को भी स्थिर किया जा सकता है पर मन को स्थिर करने की कोई बात ही नहीं है। __ शरीर की दो स्थितियां बनती हैं-चंचल या स्थिर । इच्छा होने पर अंगुली हिला सकते हैं और इच्छा होने पर उसे स्थिर कर सकते हैं। मन और वाणी के लिए यह बात नहीं है। या तो मन होगा या मन नहीं होगा। या तो वाणी होगी या वाणी नहीं होगी। मन को भी हम पैदा करते हैं और वचन को भी हम पैदा करते हैं। जब मन को पैदा करते हैं तब मन होता है और जब मन को पैदा नहीं करते तब मन नहीं होता । जब वाणी को पैदा करते हैं तब वाणी होती है और जब वाणी को पैदा नहीं करते तब वाणी नहीं होती। मन को स्थिर नहीं किया जा सकता। इस तथ्य को हम गहराई से समझ लें। हम चाहें तो उसे पैदा करें और न चाहें तो उसे पैदा न करें। मन और वचन का स्वभाव है--- चंचलता, प्रवृत्ति, सक्रियता । उसे कभी मिटाया नहीं जा सकता, रोका नहीं जा सकता। किन्तु मन पर लगाम लगाई जा सकती है और लगाम के सहारे उस पर नियन्त्रण किया जा सकता है। लगाम है श्रुत ज्ञान ___ लगाम से चलने वाले और बेलगाम से चलने वाले घोड़े में बहुत बड़ा अन्तर होता है । बेलगाम का घोड़ा भटका देता है, लगाम का घोड़ा भटकाता नहीं, राजमार्ग पर चलता है, सवार की इच्छानुसार चलता है । गौतम ने कहा-मेरे हाथ में लगाम है इसलिए मेरा घोड़ा कभी उन्मार्ग में नहीं जाता, कभी नहीं भटकता। मैं उस पर सवार हूं, जैसा चाहता हूं वैसे चला रहा हूं, इसलिए मुझे कोई कठिनाई नहीं है। मन की, उस घोड़े की चंचलता से मुझे कोई कठिनाई नहीं होती। मन उपयोगी तत्त्व है । मन नहीं होता है तो जीव असंज्ञी होता है, विकास की अन्तिम भूमिका में नहीं रहता है । मन हमारी चेतना का विशिष्ट विकास है । चींटी, कीड़े, मकोड़े-इनमें मन का विकास नहीं होता अत: ये असंज्ञी कहलाते हैं। मनुष्य में मन का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003056
Book TitleChitt aur Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size16 MB
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