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मन का अनुशासन
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कामना चेतना से भिन्न नहीं है किन्तु वहां चेतना गौण हो जाती है और कामना प्रधान बन जाती है। इसलिए वह कामना या वासना का छोर है। दूसरा छोर है चेतना का । योगशास्त्र में शरीर को चेतना की दृष्टि से दो भागों में बांटा गया
१. नीचे का भाग, जिसे मूलाधार या शक्तिकेन्द्र कहा जाता है, कामना या वासना का केन्द्र है।
२. ऊपर का भाग, सिर का भाग । ज्ञानकेन्द्र, यह चेतना का केन्द्र
__ अशुद्ध आलंबनों की छोड़ना और शुद्ध आलंबनों का सहारा लेना-यह ध्यान की प्रक्रिया का मूल तत्त्व है। इसका तात्पर्य है-कामकेन्द्र की ओर प्रवाहित होने वाली चेतना को ऊपर उठाकर ज्ञानकेन्द्र में ले जाना। नीचे के प्रवाह को ऊपर की ओर मोड़ देना। यह शुद्ध आलंबन की स्वीकृति है । यह प्रयत्न बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रयत्न है। इस प्रयत्न से सारी वृत्तियों का परिष्कार होता है, मन का अनुशासन सधता है। इन्द्रिय संयम का महत्त्व
चेतना के ऊध्र्वारोहण की प्रक्रिया है-ध्यान । चेतना नीचे से हटकर ऊपर की ओर जाती है। इस प्रक्रिया में पहला आलंबन है संयम । संयम के बिना ऊपर नहीं जाया जा सकता। हम नाभि पर ध्यान करते हैं, यह हमारा संयम है। हम आनन्दकेन्द्र पर ध्यान करते हैं, यह हमारा संयम है। सब वृत्तियों से चित्त को हटाकर किसी एक पुद्गल या परमाणु पर उसे केन्द्रित कर देना संयम है । ध्यान में इन्द्रिय-संयम परम आवश्यक तत्त्व है। व्यक्ति ध्यान करने बैठे और चारों ओर निहारता रहे तो ध्यान कैसे होगा? व्यक्ति ध्यान-काल में बाहरी आवाजों को सुनने के लिए उत्सुक रहे तो कभी ध्यान नहीं हो सकता । चित्त को केन्द्रित करने के लिए इन्द्रिय-संयम बहुत आवश्यक है । इन्द्रिय संयम के अभाव में मन के अनुशासन को साधा नहीं जा सकता। मनोनिरोध के साधन
__ केशी स्वामी ने गौतम स्वामी से पूछा-यह मन एक चपल घोड़ा है। यह चलते-चलते उन्मार्ग की ओर भी चला जाता है । आप उसका निग्रह कैसे करते हैं ?
___गौतम ने कहा-मैंने उस घोड़े को खुला नहीं छोड़ रखा है। उसकी लगाम मेरे हाथ में है।
वह लगाम क्या है ?
ज्ञान, बुद्धि या विवेक लगाम है । वह जिसके हाथ में होती है, वह उस घोड़े पर नियंत्रण पा लेता है ।
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