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मन का अनुशासन
होने पर वह अशुद्ध हो जाती है। उसे वाक्-सिद्धि प्राप्त होती है । में यह शक्ति उसकी मानसिक पवित्रता से प्राप्त होती है ।
ॐ, अहं, सोहम् आदि मंत्राक्षरों का दीर्घ उच्चारण करने से मन वाणी के साथ जुड़ जाता है। मन का योग पाकर वाणी शक्तिशाली हो जाती है । यह वायुमण्डल में तीव्र कम्पन पैदा कर देती है । उससे अनिष्ट परमाणु दूर हो जाते हैं और इष्ट परमाणुओं का परिपार्श्व बन जाता है ।
भावना और भाषा
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जिसका मन सरल और पवित्र होता है, वह जो कहता है वही हो जाता है । वाणी
जितने मनोवैज्ञानिक परिवर्तन हैं, सब भावनात्मक वाणी के द्वारा होते हैं । भावना शब्दों के माध्यम से आती है । भावना शब्दातीत नहीं होती । मन में उसका एक आकार बनता है । वह शब्द का ही आकार होता है ।
भावना की शक्ति प्रसरणशील होती है । भावना हमारी सूक्ष्म भाषा है सूक्ष्म वाणी है । एक व्यक्ति के मन में जो भाव या भाषा बनती है, सामने वाले व्यक्ति के मन में उसकी प्रतिक्रिया भाषा में बन जाती है । यह ऐसा जाना-पहचाना मनोवैज्ञानिक सत्य है जिसे कोई उलट नहीं सकता । यह अन्यथा नहीं हो सकता । एक व्यक्ति किसी के बारे में अच्छे विचार करता है, अच्छी भावना करता है, सामने वाले के मन में अपने आप अच्छे विचार खा जाते हैं, अच्छी भावना आ जाती है। बुरा विचार करता है तो सामने वाले के मन में उसके प्रति अप्रियता की भावना जाने-अनजाने पैदा हो जाती है |
मनोनुशासन
मन के अनुशासन की एक प्रक्रिया है । उसे समझे बिना मन पर अनुशासन करना संभव नहीं बन पाता । आचार्य श्री तुलसी ने एक ग्रन्थ लिखा - 'मनोनुशासनम् ।' इसका अर्थ है - मन का अनुशासन। एक भाई ने कहा —— मैंने वह ग्रंथ पढ़ा | उस ग्रन्थ को पढ़ने पर ज्ञात हुआ कि उसमें अनुशासनों का जाल बिछा हुआ है । उसमें अनेक अनुशासन हैं—आहार का अनुशासन, शरीर का अनुशासन, इन्द्रिय का अनुशासन, श्वास का अनुशासन, भाषा का अनुशासन और मन का अनुशासन । मन पर अनुशासन करने के लिए पांच और अनुशासन सीखने आवश्यक होते हैं । एक मन देवता को सिद्ध करने के लिए पांच अन्य देवताओं को साधना बहुत लंबी प्रक्रिया है । ऐसी सीधी प्रक्रिया चाहिए जिससे मन पर अनुशासन हो जाए। फिर न आहार पर अनुशासन करने की आवश्यकता है और न भाषा और इन्दियों पर अनुशासन - करने की जरूरत है ।
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