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चित्त और मन
होता है। मुनि के लिए एक विशेषण है- 'तिन्नाणं तारयाणं' - मुनि स्वयं तरता है और दूसरों को तारता है । वह स्वयं अपनी समस्याओं का पार पाता है और दूसरों को भी समस्याओं से पार पहुंचाता है । यह सब भाषा के माध्यम से ही संभव हो सकता है । भाषा के बिना ऐसा नहीं हो सकता । भाषा के अभाव में वह स्वयं तैर सकता है, दूसरों को नहीं तैरा सकता । 'तिन्नाणं तारयाणं' वाली बात भाषा के आधार पर ही सफल होती है ।
भाषा पर अनुशासन क्यों
मन की एक सीमा है । वाणी और शरीर की एक सीमा है । हमारे सारे आचरण और व्यवहार — इन सीमाओं में चलते हैं । इसीलिए सबसे पहला स्थान मन को दिया गया । कोई बात मन में आए, संयम करो । उसे मन तक ही सीमित रखो। मन में कोई बुरी बात न आए, यह अच्छी बात है । पर मन में आ जाए तो उसे मन तक रखो। बाहर मत आने दो । यदि यह सीख लिया जाता है तो बहुत सारी समस्याओं का समाधान हो जाता है । जब आदमी इस सीमा से आगे बढ़ता है तब वह बात उसके वश में नहीं रहती, वह दुनिया की बात हो जाती है। जब तक मन की बात मन में रहती है तब तक वह व्यक्तिगत बात बनी रहती है । पर जब मन की बात भाषा में उतर आती है तब वह सामाजिक बन जाती है, वैयक्तिक नहीं रहती । व्यक्ति और समाज की यही सीमा है । सीमा तक होता है, वह वैयक्तिक होता है । मन से बाहर जब आचरण और व्यवहार होता है तब व्यक्ति की सीमा समाप्त हो जाती है । वही समाज का आदि-बिन्दु बन जाता है ।
जब आचरण मन की
भाषा की शक्ति
समाज का आरम्भ वचन से होता है । वचन की बात शरीर पर चली जाती है तो इसका और अधिक विस्तार हो जाता है। वाणी एक ऐसी शक्ति है जो एक ओर मन का प्रतिनिधित्व करती है तो दूसरी ओर शरीर को
उछालती है। आदमी किसी से लड़ता है तो वाणी
के
के द्वारा
आदमी है। किसी से प्रेम करता है आदमी किसी को अपना बनाता है तो आदमी किसी को विरोधी बनाता है तो वाणी की बहुत बड़ी शक्ति | मुंह से एक बात निकलती है वाले व्यक्ति को जो चाहे सो बना देती है ।
तो वाणी वाणी के वाणी के
द्वारा ही
द्वारा ही
मन और वाणी
मन की सरलता होती है तब वाणी शुद्ध रहती है। मन की कुटिलता
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द्वारा लड़ता
करता है ।
बनाता है ।
बनाता है ।
और सामने
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