________________
चित्त और मन
हृदय है, उसके एक इन्च नीचे मन का स्थान है। वर्तमान शरीरशास्त्र का अभिमत है कि मन का स्थान मस्तिष्क
वस्तुतः ये सारी सापेक्षताएं हैं। यदि हम कहें कि मन समूचे शरीर में व्याप्त है तो यह सापेक्ष ही होगा। हमारे स्नायु-संस्थान में जितने भी ग्राहक स्नायु हैं, जो बाह्य विषयों को ग्रहण करते हैं, उनका जाल समूचे शरीर में फैला हुआ है। वे शरीर के सब भागों से ग्रहण करते हैं । इस प्रकार मन का शासन सर्वत्र व्याप्त है। राजा अपनी राजधानी में बैठा है। यदि पूछा जाए-राजा कहां है तो कहा जा सकता है-जहां तक राज्य की सीमा है वहां तक राजा है। वह भले ही राजधानी में हो किन्तु उसका शासन सारे राज्य की सीमा में चलता है इसीलिए राजा सर्वत्र व्याप्त है।
'मन हृदय के नीचे है'-यह भी सापेक्ष है । सुषुम्ना की एक धारा हृदय को छूती हुई जाती है। उसका हृदय के साथ सम्पर्क है इसलिए हृदय को मन का केन्द्र मानना बड़े महत्त्व की बात है । वह भावपक्ष का मुख्य स्थान है।
मन का स्थान मस्तिष्क है, यह बहुत स्पष्ट है। ज्ञानतंतुओं का संचालन उसी से होता है । वह उन पर नियन्त्रण और नियमन करता है। शरीर विज्ञान की दृष्टि
शरीर में दो ज्ञान केन्द्र होते हैं-एक मस्तिष्क या बृहद् मस्तिष्क, दूसरा मेरुदंड । ये दो मुख्य केन्द्र हैं । सारे शरीर में तंतुओं का एक जाल जैसा बिछा हुआ है। उन तंतुओं में दो प्रकार के तंतु हैं-एक ज्ञानग्राही और एक ज्ञानवाही । मूली की जड़ में रेशे होते हैं, जो रस का आकर्षण करते हैं, रस को खींचते हैं। उसी प्रकार हमारे तंतुओं में एक रेशे जैसे होते हैं। वे रेशे विषय को ग्रहण करते हैं और उनके द्वारा ग्रहण किया हुआ विषय आगे के तंतु (ज्ञानवाही तंतु) मस्तिष्क तक पहुंचा देते हैं मेरुदंड के माध्यम से । ये ज्ञानवाही तन्तु (Sensory Nerves) कहे जाते हैं। बृहद् मस्तिष्क का जो मध्यभाग है, उसे भेजा-कारटेक्स कहा जाता है । ज्ञानग्राही तंतु विषय को पकड़ते हैं, फिर ज्ञानवाही तंतु उसे ले जाते हैं और मस्तिष्क के कारटेक्स तक पहुंचा देते हैं । फिर अनुभव होता है, प्रत्यय होता है।
एक काम होता है ज्ञान का और दूसरा काम होता है चेष्टा का। मस्तिष्क में दो केन्द्र हैं-~-एक ज्ञान केन्द्र (Sensory Centre) और एक चेष्टाकेन्द्र या क्रियाकेन्द्र (Motor Centre)। ज्ञानकेन्द्र का काम है ज्ञान को ग्रहण कर लेना । फिर अनुभव का आदेश होता है चेष्टाकेन्द्र को, क्रियाकेन्द्र को। वह फिर प्रवृत्ति करता है । पैर में कांटा चुभा, कांटा चुभते ही जो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
WW