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मन का अनुशासन
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करना अलग बात है और चिंतन करना अलग बात है । चिंता नहीं, व्यथा नहीं। चिंतन और व्यवस्था हो । चितन भी इतना न हो कि वह चिता बन जाए। हर बात की दुनिया में सीमा होती है। उस सीमा को समझना और उस सीमा का उपयोग करना बहुत जरूरी है। मानसिक संतुलन के लिए चिंतन को भी सीमित करना आवश्यक है और यह एक प्रयोग है श्वास का, जिसमें चिंतन के चक्के को भी हम रोक सकते हैं । जिस समय श्वास लेते हैं, श्वास में ध्यान केन्द्रित होता है, विकल्प समाप्त होता है, विचार समाप्त होता है, चिंतन समाप्त होता है। श्वास का अभ्यास करते-करते भी ऐसा लगे कि विचार ज्यादा आ रहे हैं तो श्वास को बीच-बीच में रोक दें। जैसे ही श्वास का संयम हुआ, श्वास को रोका, विचार एकदम शान्त हो जाएंगे । विचारों को शांत करने का बहुत अच्छा उपाय है कुम्भक । मानसिक संतुलन : उपाय
दूसरा उपाय एक और भी किया जा सकता है। जब यह लगे कि विकल्प ज्यादा उठ रहे हैं तो जीभ को स्थिर कर लें, जीभ को दांतों के साथ गहरा दबा दें। जीभ स्थिर होती है तो विचार और चिंतन अपने आप स्थिर हो जाता है । जीभ और विचार का गहरा सम्बन्ध है।
तीसरा उपाय यह भी कर सकते हैं कि जीभ को उल्टा लें ताल की ओर । तालू की ओर जीभ को उलटते ही विचारों का प्रवाह एकदम रुक जाएगा।
ये छोटे-छोटे अभ्यास हैं, छोटे-छोटे प्रयोग हैं। ये हमारे चिन्तन को चिता में बदलने से रोकते हैं। चिंता नहीं होगी तो मानसिक संतुलन बना रहेगा । मानसिक संतुलन से ही मानसिक अनुशासन संभव बन सकता है। संतुलन का सूत्र
अगर दिन भर में एक घंटा न बोलने का अभ्यास किया जाए, प्रयोग किया जाए तो एक संतुलन बनेगा । जैसे कायिक अनुशासन है कायोत्सर्ग, वैसे ही वाचिक अनुशासन है-अन्तमौन । आदमी इतना सोचता है कि निरंतर सोचता ही रहता है । बहुत ज्यादा सोचता है, अनावश्यक सोचता है। सोचना जरूरी होता है, बिना सोचे काम नहीं चलता पर व्यक्ति अनावश्यक बहुत सोचता है। अनावश्यक चिंतन बंद हो जाए तो भी बहुत बड़ी बात होती है। अनावश्यक चितन को बंद करना मानसिक अनुशासन है।
हम एक संतुलन बनाएं। २४ घंटा में एक घंटा न सोचने का अभ्यास करें, ऐसा न हो सके तो कम से कम एक घंटा एक ही विषय पर सोचने का अभ्यास करें। एक विषय पर सोचें, दूसरे विषय पर न जाएं।
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