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मन का अनुशासन
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मन अपने आप शान्त हो जाएगा।
४. श्वास-योग-मन का श्वास की गति के साथ योग कीजिए। श्वास के आने-जाने के क्रम पर ध्यान लगाइए, श्वास की गिनती कीजिए, मन अपने आप श्वास में लीन हो जाएगा।
५. आकृति-आलम्बन--- अपने आराध्य की आकृति का मानसिक चित्र बनाइए। पहले देश काल और बाह्य वातावरण के साथ उस आराध्य की आकृति की कल्पना कीजिए, फिर उसे मानसिक चित्र में बदल दीजिए। वह चित्र बहुत स्पष्ट और प्राणवान जैसा कीजिए।
यदि प्रारम्भ में ऐसा करना कठिन लगे तो दृश्य आकृतियों पर मन को स्थापित कीजिए और साथ-साथ मानसिक चित्र बनाने का अभ्यास भी करते रहिए।
६. शब्द-आलम्बन-इष्ट मंत्रों में मन को लगाइए। मन का प्रवाह शब्द की दिशा में प्रवाहित होकर अन्य विकल्पों से शून्य हो जाता है। जप की प्रक्रिया में इसे विस्तार से बताया जाएगा।
७. दृढ़ इच्छा-शक्ति-इच्छा-शक्ति भावों से उत्पन्न होती है। भावों की प्रबलता का नाम ही इच्छा-शक्ति है। भावों को इच्छा-शक्ति के रूप में बदलने का साधन है, स्वतः सूचना (Auto Suggestion) । मन को सूचना देने के भावों में उत्तेजना आरम्भ होती है और वही इच्छा-शक्ति के रूप में परिणत हो जाती है। इच्छा-शक्ति के विकास का निरन्तर अभ्यास करने से वह दृढ़ हो जाती है। दृढ़ इच्छा-शक्ति से मन की एकाग्रता सहज ही सध जाती है। प्रेक्षा का अभ्यास
मन को प्रशिक्षित करने का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है-प्रेक्षा का अभ्यास । मन को देखने का अभ्यास करना चाहिए। मन सोचना तो बहुत जानता है। उसे यही सिखाया गया है। वह निरन्तर सोचने में लगा रहता है। हमें उसे इस दिशा में प्रशिक्षित करना है कि वह देख सके। मन में देखने की शक्ति भी है। सोचना और विचारना-यह मन की सतही अवस्था है। देखने में बहुत गहराई होती है। जब मन देखने लग जाता है तब सोचने की बात नीचे रह जाती है। कोई भी बात आती है तो देखने की बात मुख्य होगी, सोचने की बात पारिपाश्विक बन जाएगी। हम सोचते हैं, विचारते हैं किन्तु उसका हम स्वयं अनुभव नहीं करते और वही बात जब हमारे सामने आती है तब हम विश्वस्त हो जाते हैं कि यह बिलकुल ठीक है। क्योंकि जब हम केवल सोचते हैं, देखते नहीं तब वह बात हमारे प्रत्यक्ष नहीं होती जब हम आंखों से देख लेते हैं तब कोई संदेह नहीं होता।
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