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मन और चित्त मन की चार भूमिकाएं
प्रेक्षा-ध्यान की पद्धति में हम मन की चार भूमिकाओं के विकास का अभ्यास करते हैं
१. जागरूकता २. भावना ३. विचार ४. दर्शन ।
हम सत्य और संयम के प्रति जागरूक नहीं होते इसीलिए मिथ्या दृष्टि, इंन्द्रिय और मन की उच्छृखलता चलती है। हमारा अस्तित्व परिणमनशील है इसीलिए हम बाहरी वातावरण से सम्मोहित होते हैं, सुझाव और वाणी से भी सम्मोहित हो जाते हैं, जैसा निमित्त मिलता है, वैसे ही बन जाते हैं। राग-द्वेष के नाना आवेश भी भावना के स्तर पर उभरते हैं। जैसी भावना होती है, वैसे ही विचार बनते हैं। जैसे विचार होते हैं वैसा ही हमारा दर्शन होता है। जब हम इन्द्रिय विषयों के प्रति मूच्छित होते हैं, तब 'भावना, विचार और दर्शन-ये सब इन्द्रिय विषयों के आस-पास ही घूमते रहते हैं । यही सारी समस्याओं और दुःखों का मूल स्रोत है। अस्वीकार की क्षमता
प्रेक्षा-ध्यान के अभ्यास से हमारी मूर्छा टूट जाती है, मन सत्य और संयम के प्रति जागरूक बन जाता है। जागरूक मन दूसरे के सम्मोहन को अस्वीकार करने में सक्षम हो जाता है । इस कार्य में मन बहुत सहयोगी बनता है। हम शरीर और मन की अस्वस्थता को दूर करने के लिए सम्मोहन का प्रयोग करते हैं और पवित्र भावना के द्वारा हम निर्मल बन जाते हैं। हमें शरीर और मन का स्वास्थ्य उपलब्ध हो जाता है।
सम्मोहन के मुख्य तीन कारण हैं—तनाव, आवेग और अपने प्रति 'निराशा की भावना। जब निराशा की भावना होती है तब प्रत्येक बात में -संतुलन बिगड़ जाता है। परिस्थिति का प्रभाव
एक कारण है बाह्य परिस्थितियों का प्रभाव । हम बहुत जल्दी प्रभावित होते हैं। एक है मनःस्थिति और दूसरी है परिस्थिति । परिस्थिति के अनुकूल हमारी मनःस्थिति बन जाती है । यद्यपि हमारी चेतना की स्थिति है मनःस्थिति । वह स्वतंत्र होनी चाहिए। किन्तु परिस्थिति जैसी होती है, आदमी वैसा ही बन जाता है । बहुत कम लोग अपनी मनःस्थिति को परिस्थिति से मुक्त रख पाते हैं। जो परिस्थिति से मुक्त रख पाते हैं, वे ही लोग अच्छा 'निर्णय ले सकते हैं, और अच्छा काम कर सकते हैं।
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