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चित्त और मन
समय एक साथ इतना अनुताप उभरता है, इतना दुःख होता है कि व्यक्ति का मन टुकड़ा-टुकड़ा हो जाता है। वह सोचता है-जिस परिवार के लिए मैंने इतना काम किया, इतने कष्ट सहे, यह किया, वह किया और वही परिवार आज मेरे से आंख तक नहीं मिलाता। उसे अत्यन्त दुःखद अनुभूति होती है । मन मैला हो जाता है। उस पर मैल की परतें जमती चली जाती हैं। उसके लिए दुःख के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचता । हम इस सचाई को मानकर चलें कि पारिवारिक सम्बन्ध, मित्रों और साथियों के सम्बन्ध वास्तविक नहीं हैं। अन्तिम सचाई यह है कि व्यक्ति अकेला है, बिलकुल अकेला । यह है एकत्व अनुप्रेक्षा । हम इस सचाई को समझकर ही पारिवारिक संबंधों को निभा सकते हैं । जो इस सचाई को भूलकर संबंधों को अन्तिम सचाई मानकर चलते हैं, उनके मन पर मैल इतना गाढ़ा जम जाता है कि उसको धोने के लिए बहुत अधिक प्रयत्न करना पड़ता है। तीन अनुप्रेक्षाएं
मन पर जमने वाले मलों को दूर करने के लिए हमें अनुप्रेक्षा का अभ्यास करना चाहिए । तीन अनुप्रेक्षाएं हैं-अन्यत्व अनुप्रेक्षा, एकत्व अनुप्रेक्षा और अनित्य अनुप्रेक्षा । अन्यत्व अनुप्रेक्षा अर्थात् शरीर और आत्मा का भेदज्ञान । शरीर को अलग मानना, आत्मा को अलग मानना । दोष का मूल कारण है-शरीर के प्रति मूर्छा। यह मूर्छा दूसरी सारी मूर्छाओं को जन्म देती है। जब अन्यत्व अनुप्रेक्षा का अभ्यास होता है तब शरीर के प्रति होने वाली मूर्छा नहीं पनपती, मैल नहीं जमता, पदार्थ के द्वारा होने वाली मूर्छा और उससे जमने वाला मैल भी कम होने लगता है। एकत्व अनुप्रेक्षा के अभ्यास से सामाजिक संबंधों से आने वाली मूर्छा कम होने लगती है। अनित्य अनुप्रेक्षा के अभ्यास से पदार्थों के प्रति होने वाली मूर्छा नष्ट हो जाती है।
_ये तीन प्रकार की अनुप्रेक्षाएं रसायन हैं । इनसे मन के मैल को धोया जा सकता है। पथ्य की अनिवार्यता
रसायन के सेवन से भी काम पूरा नहीं होता। शोधन और रसायन के साथ-साथ पथ्य का सेवन भी होना चाहिए । जो व्यक्ति शरीर का पूरा शोधन कर लेता है, पौष्टिकता के लिए रसायन का सेवन भी करता है पर यदि वह पथ्यापथ्य का विवेक नहीं रखेगा, जो चाहा, वह खाने लग जाएगा तो शोधन और रसायन का सेवन भी क्या करेगा ? पथ्य का सेवन जरूरी है। उसके बिना प्रक्रिया पूरी नहीं होती। कहा गया—'यदि पथ्य किमौषधेन ? यद्यपथ्यं किमौषधेन ?' यदि पथ्य है तो औषधि सेवन से क्या ? यदि अपथ्य
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