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चित्त और मन
परंपरा का ज्ञान है ?
'हां, मैं परंपरा को जानता हूं। मुझे पता है, कोई नई बात नहीं है। मैंने परंपरा जानी है आचार्य तुलसी से, और इसके पीछे महावैद्यों की प्रलम्ब परंपरा भी जुड़ी हुई है। पूरी एक शृंखला है । मैं तुम्हें महावैद्य जयचार्य के" पास ले चलू। वे मन का कायाकल्प करने में कुशल थे। मैं तुम्हें आचार्य शिवकोटि के पास ले चलूं, जो आराधना का कुटीर बनाने में और पंचकर्म कराने में कुशल शिल्पी थे। और भी कितने नाम गिनाऊं। मैं इन सारे महावैद्यों की, आचार्यों की परंपरा जानता हूं, इसीलिए मैं कहता हूं कि यह तो करना ही होगा। यदि तुम्हें मन का कायाकल्प करना है तो तुम्हें पंचकर्म करना ही होगा। इसके बिना कुछ भी नहीं होगा।
उसने कुछ क्षणों तक चिन्तन किया। मन का कायाकल्प कराने का निश्चय कर सारी शर्ते स्वीकार ली। मिच्छामि दुक्कडं
मैंने कहा-अब तुम क्रम का प्रारम्भ करो। तुमने आराधना की कुटीर बना ली है । अब पंचकर्म की क्रिया का प्रारंभ करो। पडिक्कमामि निंदामि, गरहामि, आलोएमि, मिच्छामि दुक्कड़'—ये पांच कर्म हैं । आराधना ग्रंथ के प्रत्येक पद के तीन चरणों के बाद चौथा चरण है 'मिच्छामि दुक्कड़।' उसमें बार-बार इस पद का उच्चारण होता है । पंचकर्म के लिए यह जरूरी है । पंचकर्म की प्रक्रिया पूरी हो गई। शोधन हो गया। वमन, विरेचन, स्नेहन और स्वेदन--सब कुछ कर लिया। शरीर शुद्ध हो गया। उसके सारे दोष मिट गए। 'मिच्छामि दुक्कड़' का बार-बार उच्चारण कर मन को शुद्ध कर दिया पर आगे की एक महत्त्वपूर्ण बात शेष रह जाती है। पंचकर्म से शरीर शुद्ध हो जाता है किन्तु उस शुद्धि को टिकाए रखने के लिए फिर उचित
औषधि का सेवन आवश्यक होता है । उसी प्रकार मन को शुद्ध करने के पश्चात् फिर वह दूषित न बने, इसलिए कुछ करना शेप रह जाता है। अन्यथा 'मिच्छामि दुक्कड़' लंगड़ा हो जाता है। कोरे 'मिच्छामि दुक्कड़' से कुछ भी नहीं होता। आगे की बात होने पर उसका प्रभाव टिकाऊ हो सकता है। शोधन और रसायन
पूरा 'मिच्छामि दुक्कड़' तब बनता है जब उसके साथ यह आगे का सूत्र- 'इयाणि णो जमहं पुव्वमकासी पमाएणं' जुड़ जाता है। 'मिच्छामि दुक्कड़' का अर्थ है-मैंने भूल से यह काम कर दिया। इसके उत्तरसूत्र का अर्थ होता है-अब मैं वह भूल नहीं करूंगा, जो मैंने पहले की थी। 'पुनमकरणयाए भन्भुटुओमि' -मैं सावधान होता हूं कि फिर वह कभी नहीं दोहराऊंगा।
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