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________________ १६२ चित्त और मन को पापरूप में परिवर्तित किया जा सकता है । यह संक्रमण का सिद्धांत है। साधना का समग्र सूत्र है-तीनों काल का समाधान । उससे वर्तमान का ही समाधान नहीं होता, उसके साथ अतीत और भविष्य का भी समाधान होना चाहिए। हृदय परिवर्तन की प्रक्रिया : तीन अंग कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या-ये तीन प्रकार के मनोभाव हमारे मन के तीन दोष हैं । सांख्य दर्शन की भाषा में रजोगुण और तमोगुण-ये मन के दो दोष हैं। ये अनेक दोष उत्पन्न करते हैं। इन मानसिक दोषों का शोधन भी होता है और शमन भी होता है। इनके साथ विलय की बात मैं और जोड़ देना चाहता हूं। आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करने पर तीन बातें फलित होती हैं-दोषों का शोधन, दोषों का शमन और दोषों का विलयीकरण या क्षयीकरण । शमन या शांत किए गए दोष पुनः उभर सकते हैं पर क्षीण किए गए दोष कभी नहीं उभर सकते । शोधन हृदय-परिवर्तन की प्रक्रिया का एक अंग है-शोधन । हम हृदयपरिवर्तन के लिए मानसिक दोषों का शोधन करना सीखें। उसकी युक्ति को हस्तगत करें। हमें हिंसा की चेतना को बदलना है। कैसे बदलेंगे ? उसके लिए हमें कोई युक्ति चाहिए । यह हमने सिद्धांत रूप में स्वीकार कर लिया 'कि चंचलता को मिटाने का अभ्यास करने पर चेतना बदल जाती है। पर प्रश्न वही आएगा कि चंचलता को मिटाने का उपाय क्या है ? जब हम युक्ति की बात करते हैं तब हमें बहुत गहरे में जाना होगा, हृदय परिवर्तन की प्रक्रिया को समझना होगा । हृदय-परिवर्तन की प्रक्रिया ही मन के कायाकल्प की प्रक्रिया है। प्रश्न कायाकल्प का एक अपरिचित आदमी आकर बोला-'महाराज ! मैं कायाकल्प करना चाहता हूं। मैंने कहा-'कायाकल्प करना हो तो किसी वैद्य की शरण में जाओ, मेरे पास क्यों आए हो ?' उसने कहा-'मैं शरीर से स्वस्थ हूं, 'मैंने कहा-'आओ, बैठो। तुम्हारी नाड़ी देखना चाहता हूं निदान करना चाहता हूं।' वह बैठ गया। मैंने नाड़ी देखी । मुझे लगा-रोग असाध्य नहीं, साध्य है। कायाकल्प हो सकता है। मन के टिस्यू जीर्ण-शीर्ण अवश्य हैं पर मन टूटा नहीं है। मैंने कहा-'तुम्हारा कायाकल्प हो सकता है पर कुछ शर्ते हैं । यदि वे तुम्हें मान्य हों तो मैं प्रयत्न करूं, अन्यथा तुम अपनी जानो।' उसने कहा-आपकी सभी शतें मैं मान लूंगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003056
Book TitleChitt aur Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages374
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size16 MB
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