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मन का कायाकल्प
१६१ जाता है किन्तु कायोत्सर्ग और शवासन एक नहीं, दो हैं। हठयोग में शवासन को महत्त्व दिया जाता है। प्रत्येक आसन के पश्चात् एक मिनट का शवासन करने का निर्देश इसीलिए दिया गया है कि आसन का श्रम दूर हो जाए, पुनः ताजगी मिल जाए। आसनों की पूरी श्रृंखला कर लेने पर लंबे शवासन का निर्देश है। कायोत्सर्ग केवल शवासन नहीं है। उसमें एक सूत्रपाठ का उच्चारण किया जाता है.---'तस्स उत्तरीकरणेणं पायच्छित्तकरणेणं विसल्लीकरणेण पावाणं कम्माणं निग्घायणढाए करेमि काउस्सग्गं ।' कायोत्सर्ग करने वाला यह संकल्प करता है कि मैं अतीत के दूषित मनोभावों को निर्मल करना चाहता हूं, उनका प्रायश्चित्त करना चाहता हूं, उनको विशुद्ध करना चाहता हूं और सभी शल्यों को नष्ट कर निःशल्य होना चाहता हूं। कायोत्सर्ग निःशल्य होने की प्रक्रिया है । भविष्य का प्रत्याख्यान
शल्य तीन हैं-माया का शल्य, मिथ्या दृष्टिकोण का शल्य और आकांक्षा का शल्य । जब तक इनका उद्धार नहीं होता तब तक आदमी स्वस्थ नहीं हो सकता । शल्य विलिप्त तीर है । तीर निकल जाता है पर विष का शल्य भीतर रह जाता है। तीनों शल्य भयंकर हैं पर मिथ्यादर्शन का शल्य अत्यन्त भयंकर है। जब तक यह शल्य नहीं मिटता तब तक कोई व्रती नहीं बन सकता। आचार्य उमास्वाति ने व्रती की परिभाषा करते हुए लिखा है'निःशल्यो व्रती-जो निःशल्य होता है, वही व्रती बनता है । अतीत का प्रतिक्रमण निःशल्य होने का अचूक उपाय है ।
__भविष्य पर ध्यान देना भी आवश्यक है। वर्तमान ही भविष्य बनता है। व्यक्ति वर्तमान में जैसा होता है वैसा भविष्य में बनता है। जब वर्तमान में जागरूकता आती है तब भविष्य के लिए संकल्पशक्ति का विकास करना होता है । अतीत का प्रायश्चित होता है तो भविष्य का प्रत्याख्यान होता है। प्रत्याख्यान सीधा नहीं होता। उसके लिए पूरी तैयारी करनी होती है। साधना का समग्र सूत्र
ध्यान का प्रयोग प्रत्याख्यान का प्रयोग है। ध्यान में अपने आप प्रत्याख्यान होता है। ध्यान के द्वारा व्यक्ति में ऐसा रासायनिक परिवर्तन होता है कि व्यसन अपने आप छूट जाते हैं, प्रत्याख्यान स्वयं घटित हो जाता है। जैसे ही व्यक्ति वर्तमान के प्रति जागरूक होता है वैसे ही उसमें अतीत का प्रायश्चित्त और भविष्य का प्रत्याख्यान प्रारंभ हो जाता है।
भगवान महावीर ने महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया है उदीरणा और संक्रमण का । उन्होंने कहा-कर्मों की उदीरणा की जा सकती है, कर्मों को बदला जा सकता है । पापरूप में बंधे कर्मों को पुण्यरूप में और पुण्यरूप में बंधे कर्मों
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