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चित्त और मन
भोजन उस चोरी का कारण बना। भोजन निकला और भाव बदल गया। स्वभाव बनता है भाव
भाव ही स्वभाव बनता है। मन में एक विचार उत्पन्न होता है। वही विचार जब रूढ़ होता है तब स्वभाव बन जाता है। इसीलिए प्रायश्चित्त की प्रक्रिया होती है कि जब भी कोई बुरा विचार आए तो तत्काल प्रायश्चित्त कर उसका शोधन कर डालो। उसे मन से निकाल दो । यदि प्रायश्चित्त के द्वारा उसका शोधन नहीं किया तो वह ग्रंथि बन जाएगी। जब वह ग्रंथि मन में बनी रहेगी, तब तक वह सताती रहेगी। भाव का जब शोधन नहीं किया जाता तब वह स्वभाव बन जाता है। वह सघन हो जाता है, जग जाता है और प्रतिक्रिया शुरू कर देता है। भाव को बदलने का बहुत अच्छा साधन है प्रायश्चित्त । जो भाव पैदा हो, तत्काल उस भाव को मन से निकाल देना जिससे कि वह ग्रन्थि न बने । जरूरी है ज्ञान
भाव और स्वभाव के परिवर्तन के लिए ज्ञान का होना भी बहुत जरूरी है। समस्या यह है- स्वभाव-निर्माण के अनेक-अनेक शारीरिक कारण भी हैं। उन्हें कैसे जाना जाए ? सारे कारणों को जानना कैसे संभव है ? बायोकेमिस्ट कहता है कि अमुक प्रकार के लवण की कमी होती है तो आदमी का संतुलन बिगड़ जाता है और वह असामान्य आचरण करने लग जाता है, उसकी आदतें बिगड़ जाती हैं। अनेक बीमारियां भी आदतें को बिगाड़ देती हैं । क्षार की कमी के कारण जैसे आदतों में परिवर्तन आता है वैसे ही रासायनिक परिवर्तनों के द्वारा भी आदतें बनती-बिगड़ती हैं।
इन्डोबायोलोजिस्ट बताता है कि अमुक ग्रंथि का स्राव न होने के कारण या असंतुलित स्राव होने के कारण ये बीमारियां आई हैं, आदतें बदली हैं । जब ग्रंथियों के स्राव बदलते हैं, संतुलित होते हैं तब बीमारियां मिट भाती हैं और आदतें बदल जाती हैं।
स्वभाव-परिवर्तन के जितने कारण हैं, उनका ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है । परन्तु यह प्रश्न भी प्रासंगिक है कि आदमी इन भिन्न-भिन्न कारणों को कैसे जान सकता है ? एक-दो-चार कारण हो तो वह उनका ज्ञान कर सकता है पर इन सबको वह जान जाए, यह संभव नहीं है । एक-दो सूत्र ऐसे भी हैं जो अन्यान्य कारणों के ज्ञान की पूर्ति कर सकें। संकल्प शक्ति का विकास
पहला सूत्र है-संकल्प शक्ति का विकास। जिस व्यक्ति ने अपनी संकल्प शक्ति को जगा दिया, वह इन सारी कमियों को पूरा कर सकता है।
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